कनक लता चौधरी
सिनेमा देखने वाले और बनाने वाले दोनों ही तरह के लोग समाज के किसी ना किसी तबके से आते हैं, हालाँकि दोनों की परवरिश, परिवेश, रहन-सहन में अंतर हो सकता है या एक ज्यादातर होता ही है | फ़िल्म बनाने वाले लोग 90% केस में उच्चवर्ग, अमीर, पढ़े-लिखे, बैकग्राउंड से होते हैं और जाहिर से बात है ऐसे लोगों की संख्या कम ही है ! वहीँ दूसरी ओर सिनेमा देखने वाले लोग पढ़े-लिखे हो सकते हैं लेकिन उनका क्लास तथाकथित उच्च वर्ग जितना हाई प्रोफाइल नहीं होता |
सिनेमा देखने वाले लोग मध्यमवर्गीय परिवारों से ज्यादा होते हैं जो पैदा होने से लेकर मरते दम तक संघर्ष में ही रहते हैं, इनके जीवन के हर पल में कोई संघर्ष होता ही है, परेशनियाँ तो मानो इनकी परछायी है | लेकिन कहीं ना कहीं अपनी-अपनी कहानी में ये सब अपने हीरो हैं | और बस ये ही चीज असली फोर्मूला है ज्यादातर भारतीय फिल्मों का (भारतीय फिल्मे ना कि बॉलीवुड-टोलीवुड) |
भारत में सिनेमा बनाने वाले लोग इस तरह की फिल्मे बनाना चाहते हैं जो मास एंटरटेनर हो क्योंकि ऐसी फिल्मे ज्यादातर लोग देखते हैं और पसन्द करते हैं | ज्यादा लोग मतलब ज्यादा पैसा !! और इसका बाकायदा फोर्मूला फिक्स है एक आम आदमी जैसा दिखने वाला हीरो, उसकी परेशानियां, उसके संघर्ष, एक विलेन, एक हीरोइन, झूमने पर मजबूर कर देने वाले गाने, हीरो के एक मुक्के से हवा में उड़ते गुंडे, उड़ती गाड़ियाँ, एक मजाकिया किरदार, हैप्पी एंडिंग… और क्या चाहिए ??
ये सब देखकर लोग खुश होते हैं ?? हाँ क्योंकि हकीकत में ये सब नहीं होता!! और लोगों को वो चीजें ज्यादा पसन्द आती है जो कल्पना में हो या दुसरे शब्दों में कहें तो लोगों को हकीकत कुछ रास नहीं आती !
एक प्रेमी जिसकी प्रेमिका का विवाह किसी और से हो गया हो वो सारा दिन दारु पीकर, सड़कों पर गिरता पड़े, गाने गाता फिरे ये आसान है क्या?? ज़िम्मेदारियां, करियर, परिवार भी तो है !! लेकिन ये सब फ़िल्म में दिख जाए तो एक सुकून तो मिल ही जाता है, है ना??
बुरे लोगों को पीटना कौन नहीं चाहेगा?? दुसरे ग्रह के एलियन्स से धरती को बचाना कौन नहीं चाहेगा?? समय यात्रा करना कौन नहीं चाहेगा?? महंगी गाड़ियों में लड़कीबाज़ी भी मन में छुपी एक ख्वाहिश हो सकती है लेकिन हकीकत में ये सब हो सकता है क्या ?? नहीं!! और ये ही वो कुंठा है जो फिल्मों के जरिये शांत की जाती है फिर भले ही तथ्यों को इधर-उधर ही क्यों ना करना पड़े
फिर चाहे वो RRR जैसी ऐतिहासिक फ़िल्म ही क्यों ना हो!! इस फ़िल्म में अल्लूरी सीताराम राजू और कोमाराम भीम के किरदार हैं जो इतिहास की अनमोल धरोहर और वर्तमान की सीख हैं लेकिन ये कभी हकीकत में मिले ही नहीं | फ़िल्म में इन्हें डांस करते दिखाया गया है फिर भी इस फ़िल्म का बॉयकोट नहीं हुआ!!
क्यों?? क्योंकि आम जनता का मानना है कि अगर किसी का विरोध करो तो अंधे होकर और सपोर्ट करो तो अंधे होकर |
साउथ ने फ़िल्म बनाई है तो अच्छी ही होगी और बॉलीवुड ने बनाई है तो उसमें धर्म का मजाक ही बनाया होगा, इतिहास से छेड़छाड़ ही होगी!!
तो समझे ?? फिल्मे समाज का आइना नहीं है ! ये समाज में रहने वाले लोगों की धार्मिक, राजनैतिक, आर्थिक कुंठा और हीरोइज्म से पोषित अधूरी इच्छाओं का परिणाम है |
कनक लता चौधरी
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