चालीस पार की डायरी

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सुबह से सोच रही थी गुमसुम
उंगली उठाने के पहले
तुम
तुम हाँ तुम सभी सोच लेना अगर प्रेमिल भाव में हो कि कल को सभी इस दौर से गुज़र रही/ रहे होंगे

बेहद प्रेम में खींची गई छवि है तुम्हारी मेरी आंखों में
सदियों से चिर प्रतीक्षित हम औरतों का मन …
स्मृतियों के पीछे भी और आगे भी सिर्फ प्रेम …
मर्यादित भाव कभी बुरी ना हुई…कृष्ण ने राधा से प्रेम किया तो मिसाल,इसलिए कि हम इसे ईश्वरीय प्रेम दृष्टि से देखते हैं

चालीस की पार की औरतें

प्रेम में बंध जाती हैं स्वतः
किसी शॉर्ट कट शोहरतों के वास्ते नहीं…जीने के वास्ते जीना चाहतीं हैं..

जब जिंदगी बड़े दनदनाते.. करीब से ट्रेन की तरह पटरियों से खड़खड़ाते गुजर रही होती है.. नागिन की चाल की तरह ,पटरियों के अदले बदले जाने जैसी… इक दम से धडकनें भी उसी रफ़्तार से फिर चलने लगती है अपने पसंदीदा शहर की सहर(सुबह) के लिए..
जानती हूं कि प्रेम का कोई विकल्प नहीं.
इन महीनों वर्षों सदियों के दूरी के बाद …तुमने अपने जीवन को नया रुख दिया … ये अच्छे के लिए था तुम्हारे
तो ऐसे दूरियां तमाम आएं फिर भी #हम वही होंगे…तुम्हारे सपने तुम्हारी इच्छाएं प्रगाढ़ हों इस दूरी से तो न्योछावर जीवन मेरा तुमपर प्रगाढ़ता से.. पर निशब्द न रहना
कई कई प्रश्नों के उत्तर अनुत्तरित रह जाते हैं जीवन में..और हम खामोशी से चले जाते हैं..प्रेमिल औरतें आपस में कोई सात फेरों का फालतू वचन (अगर मन से न अपनाया गया हो )तो नहीं लिया पर मन के वचन निभा पाने में सक्षम रहें तो इक मिसाल कायम रखने में कामयाब होंगे …
दुनिया की फिक्र तुम्हें भी मुझे भी है.. फिर भी हमारे रिश्ते में जो थोड़ा बहुत क्षण मिला है पूर्ण से पूर्णतर रहा है …प्रेम में रिश्ते की ,आत्मा बसती है,
पुलकित रहना तुम …
चालीस के पार प्रेम के गहनतम सागर में उतराना, बहना जैसे बादलों से स्वयं को अच्छादित सा करना…

आसरा में बड़ा आसरा नज़र आता है..खुद पर भरोसा रखना…

अभी तुम धरती पर नेह बरसाने के लिए अंतिम चरण में हो …
जज़्बात तो उमड़ते घुमड़ते रहते हैं..
जैसे बादलों के पर्वत से टकरा कर बरस जाने पर धरती नम हो जाती है और समतल धरा, उपर की ओर टक टकी लगाए देखती है कि ये बादल कब प्रेम की उच्चतम शिखर से टकरा कर बरस जाए और मुझे भिगो दे .. पर कई बार दिलासा आशा दिला, ये निर्मोही बादल भी दगा दे जाता है और कहता है अभी न बरस पाया ,तुम्हें एतराज न हो तो कुछ देर बाद बरसूं??
इस भाव पर मेरा,अपेक्षारहित ममत्व भाव .. प्रेम के प्रति खिलखिलाकर
आंखों से बह सा जाता है
उस इंतजार में ,
कि हां …आएगा वो और सराबोर कर जाएगा धरा को…और मेरी हीं उच्चतम श्रृंखला से कई छोटे छोटे झरने बहते हुए उस समतल धरा को हरे भरे भी कर जाएंगे..ये भी जानती हूं भविष्य की पोपली चेहरे से जिसके दांत नहीं होंगे…
मेरे त्याग बेशक वो न जान पाए कभी भी..
फिर भी रोक तो नहीं सकती बहते हुए को …
मैं जानती हूं ,इस पर्वत श्रृंखला की उच्चतम चोटी पर टकरा कर बरस जाना मान्य नहीं किसी को.. चालीस साल पार की अभिशप्त चोटियां कहूं या सामाजिक परिवेश की चोंचलेबाजी ..जाने दो क्यूं सोच कर अपनी दृढ़ता भरी दृष्टि कमज़ोर होने दूं..
फिर भी तुम्हारे हिस्से की हर खुशी को प्रेम से खरीद लेना चाहती हूं…. कैसे परिभाषित करूं इस प्रेम को ,कैसे अभिव्यक्त करूं तुम्हारे नाम को…
जो भी हो तुम ,निष्ठा के साथ मेरे विश्वास की ऊंचाई को टूटने न देना…
मेरे पास या तुम्हारे पास कम से कम सिर्फ प्रेम के शब्दों काआशियां तो है ..तिनके जोड़ कर इस आशियां को बनाया है मिल कर..
इक इक ईंट में मेरी सहनशक्ति गिलाबें की तरह जुड़ी है.. निःस्वार्थ प्रेम के इस मन में ,इस धरती पर तुम्हारा स्वागत है…आओ छोटी बड़ी निर्झरणी के साथ ,
चालीस पार सदी की उच्चतम चोटियों से हवा के झोंके से गुज़र जाओ कि प्रतीक्षा किए जाने की हद भी हद से गुजर रही… आज इतना हीं..कल फ़िर नये पन्नो में मिलेंगे lll

स्वरचित मौलिक
पूनम श्री
पटना, राजीव नगर

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