जय अखिलेश जी की. यही हैं क्या समाजवाद, नीरज नैन

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दुनिया के बाहर जाकर पढ़ाई करने वाले, जैसा कि उत्तरप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री ने स्वयं दावा किया है, उन अखिलेश जी को वर्चुअल रैली और एक्चुअल रैली का अंतर नहीं मालूम है। आखिर दुनिया से बाहर होने का कुछ तो तेज, विशिष्ट रूप दिखाई देना चाहिए। वह उनकी वाणी में है। वैसे, लैपटॉप को लेकर योगी पर तंज कसने वाले अखिलेश जी कितने बड़े ज्ञानी, आधुनिक, सुसभ्य, प्रगतिशील और जात-पात , मजहबी राजनीति से दूर रहने वाले नेता हैं, यह आप उनके बयानों को सिलसिलेवार सुनकर तय कर सकते हैं।

समाजवादी पार्टी से नेताजी मुलायम सिंह का घर छोड़कर उनके छोटे बेटे की बहू अपर्णा यादव ने अब बीजेपी के कमल को पकड़ लिया है. नेताजी अभी अपने दूसरे बेटे अखिलेश यादव के साथ ही हैं. यानि सवेरे नेताजी को गर्म दूध और दवा देकर और आशीर्वाद लेकर बहूरानी अपर्णा यादव बीजेपी के या यूं कहिए अपने जेठ अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी के ख़िलाफ़ प्रचार पर निकल जाती हैं.

नेताजी के एक और भाई हैं अभयराम यादव, इनके बेटे हैं धर्मेन्द्र यादव और बेटी हैं संध्या यादव. धर्मेन्द्र यादव समाजवादी पार्टी के टिकट पर तीन बार बदायूं से सांसद रहे हैं और अभी पार्टी का प्रचार कर रहे हैं, लेकिन उनकी बहन संध्या बीजेपी के लिए प्रचार कर रही हैं. उनके पति अनुजेश यादव भी उनके साथ हैं. दरअसल साल 2017 में मैनपुरी में संध्या यादव के ख़िलाफ समाजवादी पार्टी के नेताओं ने ही बग़ावत कर दी और 32 में से 23 ज़िला पंचायत सदस्यों ने आवाज़ उठाई. पिछले पंचायत चुनाव के समय वो बीजेपी में शामिल हो गईं अब साले साहब साइकिल के साथ निकलते हैं और बहन-जीजाजी कमल थाम कर चल रहे हैं.

डॉन का भी परिवार सियासी दलों में बंटा है

यूपी में पहले चरण में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में वोट डाले जाएंगे. इस इलाके का प्रमुख शहर है सहारनपुर और वहां की राजनीति का बड़ा नाम रहा काजी रशीद मसूद, कांग्रेसी मसूद आठ बार सांसद रहे. उनके दो भतीजे हैं इमरान मसूद और नोमान मसूद, दोनों जुड़वा भाई, लेकिन उससे क्या हुआ, दोनों अलग-अलग पार्टी में हैं. इमरान मसूद जिन पर राहुल गांधी भरोसा करते थे, वो समाजवादी पार्टी में चले गए हैं. जबकि नोमान बहुजन समाज पार्टी के सहारे आगे बढ़ने की कोशिश में हैं. इलाका एक है, कार्यकर्ता, रिश्तेदार सब एक ही हैं. बैठकें भी होती हैं लेकिन चुनाव प्रचार के लिए अलग-अलग चुनाव चिन्ह के साथ आगे बढ़ जाते हैं. हो सकता है किसी दिन एक भाई को दूसरे भाई की गाड़ी की ज़रूरत पड़े तो ड्राईवर नहीं, सिर्फ गाड़ी पर लगा झंडा बदलना पड़ेगा.

बाप-बेटे के साथ मां-बेटी के भी राजनीतिक रास्ते अलग-अलग हैं

बाप-बेटा ही क्यों, मां-बेटी भी अलग-अलग राजनीतिक रास्तों पर चल सकती हैं. पूर्वांचल की ही एक प्रमुख पार्टी मानी जाती है अपना दल. अपना दल सोनेलाल ने बनाया था, लेकिन उनके निधन के बाद इसके दो हिस्से हो गए. सोनेलाल पटेल की पत्नी कृष्णा पटेल ने अपनी एक बेटी पल्लवी पटेल को अपनी जगह राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बना दिया, तो दूसरी बेटी अनुप्रिया पटेल को यह मंज़ूर नहीं हुआ.

आप कह सकते हैं कि भाई-भाई या बाप-बेटे तो अक्सर अलग-अलग रास्ता अख्तियार कर लेते हैं, तो फिर बात पति-पत्नी की, एक ज़माने तक तो हमारे यहां वोट भी फैमिली वोट होता था. यानि परिवार का मुखिया या पति जिस पर कहेगा, मुहर उस पर ही लगेगी. लेकिन अब वोट तो बहुत दूर की बात है राजनीतिक पार्टियां भी अलग-अलग होने में कोई मुश्किल नहीं. यूपी में कांग्रेस की लोकसभा सीट है रायबरेली से कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी की, राहुल गांधी अमेठी का चुनाव पिछली बार हार गए थे. इसी इलाके से कांग्रेस नेताओं में एक बड़ा नाम रहा अखिलेश सिंह. उनका कितना असर था इस बात का अंदाज़ा इससे लगा सकते हैं कि साल 2017 के विधानसभा चुनाव में जब बीजेपी के अलावा कुछ नहीं रहा, तब अखिलेश सिंह की बेटी अदिति सिंह ने कांग्रेस के टिकट पर रायबरेली सदर सीट से चुनाव जीता.

सत्ता बदलने पर मोदी समर्थकों को खुले आम धमकाने वाले, प्रेस वार्ता में पत्रकारों को अपना जूता समझने वाले अखिलेश जी अभी साम-दाम-दंड-भेद सब कर रहे लेकिन विधि का विधान ऐसा कि उनका अपना ही कुनबा नहीं बच पा रहा। अपर्णा यादव जी ने राष्ट्रवाद का राग गाते हुए भाजपा को चुन लिया है। बीते दो तीन महीनों और हाल की राजनीतिक उठा-पटक को देखें तो पता चलता है कि अखिलेश जी को कभी भगवान कृष्ण सपने में दिखाई देते हैं तो कभी भगवान परशुराम का ध्यान कर वह फरसा  उठा लेते हैं। वहां भी नियति ऐसी कि अपने फरसे से कभी इक्कीस दुर्धर्ष युद्ध जीतने वाले परशुराम उन्हें नहीं स्वीकारते। उनका फरसा अखिलेश जी का संस्पर्श पाकर ही ढह जाता है। तब अखिलेश जी आगे बढ़कर कहते हैं कि हम तो जात-पात जानते ही नहीं। कभी जाति-पाति की ही नहीं।

जात-पात और भाई-भतीजावाद के साथ मुल्लावाद को हटा दें तो समाजवादी पार्टी शून्य पर आकर ठहर जाय। पूरी राजनीतिक विरासत ही जात-पात और भाई-भतीजावाद की है लेकिन अब उसमें भी सेंध लगने लगी है। घर टूट रहा है। राष्ट्रवाद ने वहां एक रास्ता बना लिया है।अब अखिलेश जी के पास कौन से हथियार बचते हैं। एक अमोघ अस्त्र मुफ्तखोरी के प्रलोभन का है। इसीलिए बिजली मुफ्त देने का पांसा उन्होंने चल दिया है। लेकिन उनके मुख्यमंत्री रहते हुए उत्तरप्रदेश के अस्सी प्रतिशत क्षेत्र हर दिन घंटों राग दीपक सुना करते थे। बिजली तो किसी स्वप्नसुंदरी सी आती थी। अब वे फिर से स्वप्नसुंदरी का लोभ दे रहे।

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