10/04/2024
मक्के की बढ़ती मांग और ज्यादा उत्पादन के दबाव के कारण आज जेनेटिक इंजीनियरिंग द्वारा विकसित (जीएम) मक्का के बारे में चर्चा जोर पकड़ रही है । पर भारतीय परिप्रेक्ष्य में इसके खतरे को नजरअंदाज किया जा रहा है । जीएम मक्के की किस्मों की कीट प्रतिरोधक क्षमता और विशिष्ट गुणों को बढ़ाने के लिए इंजीनियरिंग की जाती है । ये गुण मक्के के बीजों में न केवल कीटों के प्रति प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाते हैं बल्कि कम रसायनों के इस्तेमाल होने से मिट्टी की गुणवत्ता पर भी कम असर डालते हैं । भारत में शुरुआती दौर से ही नॉन जीएम मक्के की किस्में भारतीय कृषि की आधारशिला रही है, लेकिन जीएम मक्के का समर्थन करने वाले लोगों के अनुसार जीएम मक्का, मक्के की कृषि चुनौतियों से निपटने में अधिक सक्षम है । फिर भी इससे जुड़े खतरे और आशंका बिल्कुल निराधार नहीं हैं । जीएम फसलों की खेती से जैव सुरक्षा, पर्यावरण प्रभाव, किसान स्वायत्तता और उपभोक्ता प्राथमिकताओं जैसे अनगिनत समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है । सीमित खेती परीक्षणों के लिए नियामक परमिशन के बावजूद आज भी जीएम मक्के के व्यावसायीकरण को लेकर भारत में कई प्लेटफ़ॉर्म पर बहस जारी है ।
आइये जरा विस्तार से हम भारत में जीएम मक्के से जुडी आशंकाओं का आकलन करते हैं ।
- अभी यह नया है, अध्ययन बाकी: जीएम मक्का के संबंध में बहुत लम्बा अध्ययन नहीं होने के कारण कुछ कृषि वैज्ञानिकों का मानना है कि इसके संभावित पर्यावरणीय दुष्प्रभाव हो सकते हैं, जिनमें आनुवंशिक संदूषण, जैव विविधता की हानि और पारिस्थितिक असंतुलन जैसे खतरे शामिल हैं ।
- नियामक जांच की जरूरत : जीएम मक्का की खपत की सुरक्षा और संभावित स्वास्थ्य प्रभावों के संबंध में अभी और मूल्यांकन और नियामक जांच की आवश्यकता है ।
- यह सीधे उत्पादन नहीं बढ़ाता: हमें ये समझना होगा कि जीएम मक्का, सीधे उत्पादन को नहीं बढ़ाता है बल्कि यह तात्कालिक कीट संबंधी समस्याओं का समाधान करता है, जिससे थोड़े समय के लिए उपज में वृद्धि होती है । विशेषज्ञों का मानना है कि समय के साथ जीएम फसलें अपनी कीट प्रतिरोधक क्षमता खो देती हैं ।
- कहीं बीटी कपास वाला न हो जाए हाल: जीएम मक्का को लेकर एक बड़ी आशंका यह है कि कही इसका हश्र भी बीटी कपास जैसा न हो जाए । बीटी-कॉटन एकमात्र जीएम कपास है जो भारत में व्यावसायिक रूप से उगाया जाता है । सरकार का इसे अपने देश में बढ़ावा देने का एक बड़ा मकसद कम कीमत में ज्यादा उत्पादन कर किसानों के मुनाफे को बढ़ाना था, लेकिन उल्टे इससे किसानों की अग्रिम लागत बढ़ गई और उनके बजाय कुछ बीज कंपनियों की ही समृद्धि बढ़ी । और तो और, किसानों की उन बीज कंपनियों पर निर्भरता बढ़ गई, जो बीटी-कॉटन का उत्पादन करते हैं ।
- छोटे किसानों के लिए खतरा: यहां यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि वैश्विक स्तर पर भारत में छोटे किसानों की संख्या बहुत अधिक है, इसलिए यहां इन किसानों के हित को ध्यान में रखना सर्वोपरि है । बीटी-कॉटन की तरह ही जीएम मक्का को अपनाने के बाद इसका पेटेंट और टेक्नोलॉजी कुछ बड़ी कंपनियों के हाथ में सीमित हो सकती है, जिससे भविष्य में किसानों की बीज संप्रभुता, बहुराष्ट्रीय निगमों (मल्टीनेशनल कंपनीज) पर निर्भर हो जाएगी । बाद में इसके कई दूरगामी परिणाम हो सकते है ।
- अमेरिकन रिसर्च पर आधारित : जीएम मक्के की किस्मों को संयुक्त राज्य अमेरिका में उपजाए जाने वाले मक्का में कीट संक्रमण की समस्या से निपटने के लिए आनुवंशिक रूप से संशोधित किया गया है। पर ये जरूरी तो नहीं है कि जो कीट-प्रजाति संयुक्त राज्य अमेरिका में मक्के के संक्रमण का कारण हैं, वही कीट भारत में भी इसकी फसल के लिए चुनौती हों । भारत में मक्का उत्पादन को प्रभावित करने वाली कीट प्रजातियाँ अलग हो सकती हैं, जिनके नियंत्रण के लिए सरकार को अलग रणनीति बनाने की आवश्यकता है ।
- जैव सुरक्षा प्रोटोकॉल आवश्यक: जीएम मक्का किस्मों की खेती और व्यावसायीकरण को नियंत्रित करने, पारदर्शिता के साथ जोखिम मूल्यांकन, निगरानी और हितधारक जुड़ाव सुनिश्चित करने के लिए भारत में पर्याप्त नियामक ढांचे और जैव सुरक्षा प्रोटोकॉल आवश्यक हैं ।
- अन्य देशों का उदाहरण भी देखें: यूक्रेन और चीन जैसे प्रमुख गैर-जीएम मक्का उत्पादक देशों में मक्के की पैदावार भारत से दोगुनी से भी अधिक है । अतः भारत अभी भी सर्वोत्तम कृषि पद्धतियों को अपनाकर जीएम बीजों का आयात किये बिना भी यहाँ मक्का की उपज बढ़ाने में सक्षम है ।
- यूरोपीय संघ ने लगा रखा है प्रतिबंध : जीएम मक्का लगभग महज 19 देशों में ही उगाया जाता है । यूरोपीय संघ ने जीएम फसलों की खेती पर प्रतिबंध लगा दिया है । अतः अगर भारत भी जीएम देश हो गया तो वैसे देश जो गैर जीएम हैं वो हमसे इम्पोर्ट करना बंद कर सकते हैं, जिससे हमारे देश के किसानों को बहुत बड़ी आर्थिक हानि हो सकती है । इससे एक डर यह भी है कि हमारे दूसरे एक्सपोर्ट भी प्रभावित हो सकते हैं । साथ ही हमारी पोल्ट्री इंडस्ट्रीज़ भी जीएम फीड बेस्ड हो जाएगी, जिससे एक संभावना यह भी है कि मानवीय स्वास्थ्य पर इसका दूरगामी दुष्प्रभाव हो सकता है ।
नॉन जीएम मक्का क्यों है भारत के लिए अच्छा
आइये अब हम नॉन जीएम मक्के की बात करते हैं । भारतीय मक्के की कई तरह की किस्में है, जिनमें व्यापक रूप से खेती की जाने वाली डेंट और फ्लिंट किस्मों से लेकर अपने विशिष्ट स्वादों और विशेषताओं के लिए पसंद की जाने वाली स्थानीय प्रजातियां शामिल हैं ।
- भारतीय मक्के की किस्में विविध जीन पूल को बनाए रखकर जैव विविधता के संरक्षण में योगदान देती हैं ।
- भारतीय मक्के की किस्मों को स्थानीय कृषि-जलवायु परिस्थितियों के अनुकूल बनाया गया है, जिससे वे भारत में खेती के लिए बेहतर अनुकूल बन गई हैं ।
- नॉन जीएम मक्के को अक्सर उनके स्वाद, पोषक तत्व और स्थानीय व्यंजनों की उपयुक्तता के लिए पसंद किया जाता है । इस प्रकार यह स्थानीय स्तर पर खाद्य सुरक्षा में योगदान देता है ।
- नॉन जीएम मक्के की खेती से किसानों की बीजों की संप्रभुता छीने बिना उनकी आर्थिक स्थिति सुधारी जा सकती है । मक्के पर कई उद्योग आधारित होने के कारण तथा मक्का अनाज और इसके उप-उत्पादों की बिक्री से किसान कम जोखिम और छोटी लागत पर भी अपनी आय को बढ़ा सकते हैं ।
- मक्का पशु आहार निर्माण में एक महत्वपूर्ण घटक के रूप में कार्य करता है, जो डेयरी और पोल्ट्री उद्योगों को सशक्त बनाता है । जैसे-जैसे मांस, दूध और अंडों की मांग बढ़ती जा रही है, पशु धन उत्पादकों के लिए पौष्टिक और लागत प्रभावी चारा सामग्री के रूप में मक्के की उपलब्धता और भी महत्वपूर्ण होती जा रही है ।
- मक्का पर आधारित उद्योगों में प्रसंस्करण, भंडारण, विपणन और वितरण सहित विभिन्न कृषि-व्यवसाय के अवसर शामिल हैं । मक्का मिलिंग, स्टार्च निष्कर्षण और इथेनॉल उत्पादन जैसी मूल्य संवर्धन गतिविधियाँ रोजगार के अवसर पैदा करती हैं और ग्रामीण आर्थिक विकास को प्रोत्साहित करती है ।
जलवायु अनुकूल फसल है मक्का, भारतीय जलवायु के लिए बेहतरीन फसल
मक्का दुनिया भर में खेती की जाने वाली महत्वपूर्ण फसलों में से एक है । अपने देश में, मक्का का उपयोग पौष्टिक अनाज के अलावा पशुओं और पॉल्ट्री के आहार, मकई फ्लेक्स, स्टार्च, ग्लूकोज, जैव ईंधन मसलन रबर, इंजन तेल और अन्य उत्पादों के निर्माण में होता है । आज जब पानी की कमी के कारण वैसी फसलों के उत्पादन पर ज्यादा जोर दिया जाता है जिनकी उपज में पानी की खपत कम हो, ऐसी स्थिति में मक्के की खेती एक अच्छा विकल्प है । मक्के की एक विशेष खासियत यह है कि एक तो इसमें अन्य फसलों की तुलना में पानी कम लगता है, दूसरा ये कार्बन फुटप्रिंट भी कम करता है । मक्का एक जलवायु अनुकूल फसल हैं जिसे अलग-अलग जलवायु और मिट्टी में बड़ी आसानी से उपजाया जा सकता है । मिश्रित फसल प्रणालियों में मक्के को शामिल करने से मिट्टी के स्वास्थ्य और कीट प्रबंधन में सुधार हो सकते हैं। इन्हीं सब कारणों से भारत सरकार पिछले कई सालों से मक्का उत्पादन पर खासा जोर दे रही है ।
वैश्विक मक्का बाजार में बढ़ रही अपनी पैठ
पिछले कुछ वर्षों में भारत का मक्का उत्पादन लगातार बढ़ रहा है, जिससे हमारा देश वैश्विक मक्का बाजार में अग्रणी होता जा रहा है । भारत में मक्के की खेती देश भर में लगभग 9 मिलियन हेक्टेयर भूमि पर होती है जिसमें कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार और उत्तर प्रदेश महत्वपूर्ण मक्का उत्पादक राज्य हैं । विभिन्न सरकारी पहलों यथा राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा मिशन (एनएफएसएम) और राष्ट्रीय कृषि विकास योजना (आरकेवीवाई) और इसकी खेती में नई तकनीकों के उपयोग के कारण भारत में मक्का के उत्पादन में निरंतर वृद्धि हो रही है ।
उपज में लगातार वृद्धि, एथेनॉल की वजह से भी बढ़ी डिमांड
आइये अब हम भारत में मक्के की उपज, खपत और मांग के कुछ आंकड़ों पर नजर डालते हैं । हाल के आंकड़ों के अनुसार, भारत का मक्का उत्पादन वित्तीय वर्ष 2021-2022 में 28 मिलियन मीट्रिक टन था, जो 2022-23 फसल वर्ष (जुलाई-जून) में 34.61 मिलियन टन तक पहुंच गया । नीति आयोग के अनुसार भारत में एथेनॉल की बढ़ती मांग को देखते हुए, भारत सरकार का मक्के के उत्पादन को मौजूदा 3.5 मीट्रिक टन प्रति हेक्टेयर से बढाकर 6 मीट्रिक टन प्रति हेक्टेयर तक करने का लक्ष्य है । उन्नत कृषि पद्धतियों, संकर बीजों और मशीनीकरण को अपनाने से मक्के की पैदावार में लगातार वृद्धि हो रही है । एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत का मक्का उत्पादन इस साल 1.34 प्रतिशत की सीएजीआर से बढ़ने की उम्मीद है, जो खपत में वृद्धि की गति से कम है, जो 2021-31 के दौरान 1.82 प्रतिशत की सीएजीआर पर आंकी गई है । इसके अलावा, पशु आहार में उपयोग किए जाने वाले मक्के की हिस्सेदारी 2031 तक मौजूदा 51 प्रतिशत से बढ़कर लगभग 54 प्रतिशत होने की उम्मीद है । फाइनेंसियल एक्सप्रेस में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार वर्तमान में बाजार में पॉल्ट्री फ़ीड की कीमत लगभग 40,000 रुपये प्रति टन हैं, जो तीन महीने पहले 36,000 रुपये प्रति टन थी । पॉल्ट्री उद्योग की बढ़ती मांग और इथेनॉल उत्पादन पर सरकार के जोर देने से पिछले तीन महीनों में मक्के की मंडी कीमतें 22,000 रुपये प्रति टन से 20% बढ़ाकर 26,500 रुपये प्रति टन हो गयी है । गन्ना उत्पादन में विफलता को देखते हुए, सरकार अधिक अनाज-आधारित इथेनॉल उत्पादन, विशेष रूप से मक्का से, पर जोर दे रही है । आज मक्के की कीमत चालू फसल वर्ष (2023-24) के लिए 2090 रुपये प्रति क्विंटल के न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) से अधिक चल रही हैं, क्योंकि पोल्ट्री क्षेत्र में सालाना वृद्धि दर लगभग 8% देखी जा रही है । अब देखा जाए तो मक्के का उत्पादन मांग के अनुरूप नहीं हो पा रहा है ।
मक्का इथेनॉल के उत्पादन के लिए प्राइमरी फीडस्टॉक
भारत सरकार ने वर्ष 2030 तक 20% बायो एथेनॉल को पेट्रोल और डीजल में मिश्रित करने का लक्ष्य रखा है । मिश्रण के इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए, इथेनॉल उत्पादन के लिए खाद्यान्न की आवश्यकता लगभग 165 एलएमटी होगी। विश्व स्तर पर, मक्का इथेनॉल के उत्पादन के लिए एक प्राथमिक फीडस्टॉक है क्योंकि इसमें एक तो पानी की कम खपत होती है और दूसरा इसकी उपज करना आसान है । इसीलिए कृषि मंत्रालय एवं भारतीय मक्का अनुसंधान संस्थान उच्च उपज देने वाली किस्मों को विकसित कर मक्का उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए लगातार काम कर रहा है ।
नॉन जीएम मक्का किस्मों के उपयोग को बढ़ावा देने के लिए की जा सकती है यह पहल
पिछले कई वर्षों में मक्के के उत्पादन, उसके क्षेत्रफल और उत्पादकता में लगातार वृद्धि हो रही है । सरकार भी मक्का उत्पादन पर खासा जोर दे रही है । वर्तमान में नॉन जीएम मक्का किस्मों के उपयोग को बढ़ावा देने और भारतीयकरण में किसानों का समर्थन करने के लिए, निम्नलिखित कदम उठाए जा सकते हैं:
- आज उच्च उपज देने वाली, कीट और रोग प्रतिरोधी और भारत की कृषि-जलवायु परिस्थितियों के लिए उपयुक्त मक्के की किस्मों को विकसित करने के लिए अनुसंधान और विकास में निवेश आवश्यक है । सरकार और निजी कंपनियों के आपसी सहयोग से प्रौद्योगिकी हस्तांतरण करके भारत मक्का उत्पादन में विश्व में अग्रणी हो सकता है ।
- किसानों को भूमि की उचित तैयारी, समय पर बुआई, उर्वरकों का संतुलित उपयोग, कुशल सिंचाई विधियों और एकीकृत कीट प्रबंधन जैसी सर्वोत्तम प्रथाओं के बारे में शिक्षित करने से मक्के की पैदावार बढ़ सकती है ।
- मक्के के उत्पादन में डबल क्रॉस और ट्रिपल क्रॉस जैसे हाइब्रिड बीजों की तुलना में उन्नत सिंगल-क्रॉस हाइब्रिड बीजों के इस्तेमाल को बढ़ावा देने से मक्के की पैदावार अधिक बढ़ाई जा सकती है ।
- पाया गया है कि वर्तमान में भारत में मक्के में हाईब्रिडाइजेशन (संकरण) लगभग 65-70% है, जबकि बिहार और तमिलनाडु में संकरण का स्तर उच्चतम (100%) है । पूरे देश में इसी तर्ज पर हाईब्रिडाइजेशन (संकरण) के प्रतिशत को बढाने की जरूरत है ।
- मक्का उत्पादन बढ़ाने के लिए यह सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है कि किसानों को सस्ती कीमतों पर उच्च गुणवत्ता वाले बीज, उर्वरक और कीट नाशक उपलब्ध हों ।
- नॉन जीएम मक्के की खेती के लिए मूल्य प्रीमियम या सब्सिडी, ऋण सुविधाएं, बीमा सुरक्षा और बाज़ार प्रोत्साहन आदि प्रदान करके किसानों को मक्के की नॉन जीएम किस्मों का उत्पादन बढ़ाने के लिए उत्साहवर्धन किया जा सकता ।
- सिंचाई सुविधाओं, सड़कों, भंडारण सुविधाओं और बाजार संपर्क जैसे ग्रामीण बुनियादी ढांचे में सुधार करने से किसानों के फसल के बाद के नुकसान को कम करने और उनकी उपज के लिए बेहतर कीमतें सुनिश्चित करने में मदद मिल सकती है ।
- किसान उत्पादक संगठनों (एफपीओ) और सहकारी समितियों के लिए समर्थन भी किसानों की सौदेबाजी की शक्ति और बाजार पहुंच को मजबूत कर सकता है ।
- सरकार ऐसी नीतियां लागू करे जो नॉन जीएम मक्का की किस्मों के संरक्षण और टिकाऊ उपयोग को बढ़ावा दें, जिसमें नॉन जीएम मक्का उत्पादन एवं उपयोग के प्रसार के लिए बीज संरक्षण कार्यक्रम और नियामक उपाय शामिल हैं ।
नॉन जीएम किस्मों को और उन्नत बनाने की है जरूरत
भारत में मक्का उत्पादन देश भर के किसानों की आर्थिक उत्थान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है । अतः आज जब जीएम मक्का को अपनाने के लिए देश में बहस छिड़ी हुई है, नॉन जीएम मक्का की किस्मों के संरक्षण, संवर्धन और टिकाऊ उपयोग को प्राथमिकता देने, खाद्य और पोषण सुरक्षा सुनिश्चित करने, जैव विविधता को संरक्षित करने और भारत में लचीली कृषि प्रणालियों को बढ़ावा देने की कवायद निहायत जरूरी है । देश में मक्का की खेती की दीर्घकालिक स्थिरता के लिए नॉन जीएम किस्मों को और उन्नत बनाने और आनुवंशिक संसाधनों की सुरक्षा करते हुए आधुनिक प्रौद्योगिकियों और टिकाऊ प्रथाओं को अपनाने में किसानों का समर्थन करने का प्रयास आवश्यक है । साथ में ही हमें यह भी सुनिश्चित करना होगा कि इस आधुनिक तकनीक से आनुवंशिक संशोधित मक्के के बीजों के कोई दूरगामी दुष्परिणाम तो नहीं आयेंगे । हमने यह भी देखा है कि बीटी कपास में भारतीय किसानों को एक कडवा अनुभव हो रहा है, जहाँ हम बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दोहरी पॉलिसी के शिकार हो रहे हैं । अतः नॉन जीएम कृषि पद्धतियों का समर्थन करने और किसानों को भारतीय संदर्भ के अनुकूल टिकाऊ खेती के तरीकों को अपनाने के लिए सशक्त बनाने के प्रयास किए जाने चाहिए ।
डॉ० ममतामयी प्रियदर्शिनी
पर्यावरणविद एवं सामाजिक कार्यकर्ता
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