एक भक्त की भावना
भारतीय संस्कृति में भगवान भास्कर का स्थान अप्रतिम है। समस्त वेद, स्मृति, पुराण, रामायण, महाभारत आदि ग्रंथों में भगवान सूर्य की महिमा का विस्तार से वर्णन है। सभी लोग सूर्य नारायण भगवान का प्रत्यक्ष साक्षात्कार प्रतिदिन करते हैं। बाल्मीकि रामायण के युद्ध कांड सर्ग 101 में आदित्य हृदय स्तोत्र द्वारा इन्हीं भगवान सूर्य की स्तुति की गई है। प्रमुख वैदिक उपासनाओं में सूर्योपासना अत्यंत प्राचीन है। पुराण आदि ग्रंथों में जो चारप्रकार के कालों – मानस काल, त्रिकाल, देव काल और ब्रह्म काल का वर्णन किया गया है, उसके भी आधार सूर्य नारायण भगवान ही हैं।
सूर्य देव को अदिति पुत्र होने के कारण आदित्य की भी संज्ञा दी गई है। भविष्य पुराण का आदित्य हृदय स्तोत्र अत्यधिक प्रचलित स्तोत्र है। इसकी प्रसिद्धि प्राचीन काल में भी इतनी अधिक थी कि महर्षि पराशर ने सूर्य की दशा और अंतर्दशा में शांति के लिए सभी जगह इसी स्तोत्र के जप का निर्देश दिया गया है। भगवान कृष्ण ने इसका उपदेश अर्जुन को दिया था। इसके पाठ से प्राणी दुख, दरिद्रता कुष्ठ आदि असाध्य रोगों से मुक्त होकर महा सिद्धि को प्राप्त कर लेता है। रावण पर
विजय प्राप्त करने के लिए भगवान राम ने भी आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ किया था। यह रेखांकित करने योग्य तथ्य है कि वाल्मीकि रामायण में अगस्त्य मुनि का लिखा हुआ, आदित्य हृदय स्तोत्र भविष्य पुराण के आदित्य हृदय स्तोत्र से भिन्न है।
मार्कण्डेय पुराण में वर्णन है कि देवी अदिति नियम पूर्वक दिन-रात सूर्य देव की स्तुति करती थीं। वह नित्य प्रति निराहार रहती थी। एक दिन सूर्य देव ने प्रसन्न होकर दक्ष कन्या अदिति को आकाश में प्रत्यक्ष दर्शन दिया और कहा- मैं अपने सहस्र अंगों सहित तुम्हारे गर्भ से उत्पन्न होकर तुम्हारे पुत्रों के शत्रुओं का नाश कर दूंगा। इतना कह कर भगवान भास्कर अंतर्ध्यान हो गए।
ब्रह्म पुराण के अनुसार, जो भक्तिपूर्वक सूर्यदेव की प्रदक्षिणा करता है, उसके द्वारा सातों द्वीपों सहित पृथ्वी की परिक्रमा हो जाती है। जो सूर्यदेव को अपने हृदय में धारण करके केवल आकाश की प्रदक्षिणा करता है, उसके द्वारा निश्चय ही संपूर्ण देवताओं की परिक्रमा हो जाती है। जो षष्ठी या सप्तमी को एक समय भोजन करके नियम और व्रत का पालन करते हुए भगवान भास्कर का भक्तिपूर्वक पूजन करता है, उसे अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त
होता है। वाराहपुराण में वर्णन है कि भगवान श्रीकृष्ण के पुत्र साम्ब को जब कुष्ठ रोग हो गया था, तब नारद जी ने उसे सूर्योपासना का उपदेश दिया था। साम्ब ने मथुरा जाकर सूर्यनारायण की उपासना की, तब वह ठीक हो गया। एक बारसाम्ब को स्वप्न देकर सूर्य देव ने कहा कि मेरे अत्यंत पवित्र और शुभ 21 नामों के स्तोत्र का पाठ करने से सहस्रनाम का पाठ का फल तुम्हें प्राप्त जाएगा। जो प्रातः और संध्या इस स्तोत्र का पाठ करेगा, वह सब पापों, रोगों से मुक्त होकर धन-धान्य, आरोग्य संतान आदि से युक्त हो जाएगा।
हजारों संक्रांति, हजारों चंद्रग्रहणों, हजारों गोदानों तथा पुष्कर और कुरुक्षेत्र आदि तीर्थों में स्नान करने से जो फल प्राप्त होता है, वहफल केवल सूर्य के व्रतानुष्ठान के दौरान अर्ध्य प्रदान करने मात्र से प्राप्त हो जाता है। प्रभातकाल में पूर्वाभिमुख होकर, सायंकाल में पश्चिमाभिमुख और रात्रि काल में उत्तराभिमुख होकर ऊं खखोल्काय नमः’ इस मूल मंत्र से सूर्य देव की पूजा करने का शास्त्रों में विधान है।
सूर्य नारायण के चार दिनों के व्रतानुष्ठान के दौरान षष्ठी तिथि को अस्ताचलगामी सूर्य और सप्तमी तिथि को उदयाचलगामी सूर्य को अर्घ्य देने वाले व्रतियों के लिए एक मंत्र बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। मंत्र है- ‘एहि सूर्य! सहस्रांसो! तेजो राशे! जगत्पते! अनुकंप्ये मां भक्त्या गृहाणार्घ्य प्रभाकर!’
हाल ही की टिप्पणियाँ