महाराजा फ़तेह बहादुर शाही: अंग्रेजों से लोहा लेने वाले पहले भारतीय
फतेह साही वीर लाख में, एक अकेले लाख समान,
जइसे बाज झपट मारे, झपटसु, डपटसु करसु प्यान’
भोजपुरी कविता ‘मीर जमाल वध’ से ये पंक्तियाँ, महाराजा फ़तेह बहादुर शाही के बारे में बताती हैं, जिनको कई इतिहासकार अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष करने वाले पहले भारतीय बताते हैं । दरअसल ये वो वक़्त था, जब मुग़ल सल्तनत का सूरज ढल रहा था और सन 1765 में अंग्रेजों को बंगाल, बिहार और ओडिशा की दीवानी हासिल हुई थी ।
महाराजा फ़तेह बहादुर शाही के बारे में ज़्यादा जानकारी उपलब्ध नहीं हैं। हालांकि कई स्थानीय और औपनिवेशिक तथ्यों के अनुसार, अंग्रेज़ों के खिलाफ उनका संघर्ष अट्ठारहवीं शताब्दी के आखिरी तीन दशकों में सन 1767 से लेकर 1795 तक जारी रहा ।
फ़तेह हुस्सेपुर (कई तथ्यों के अनुसार वर्तमान गोपालगंज या सारण जिले (बिहार) में) के भूमिहार समुदाय से थे, जिनका उदय सत्रहवीं शताब्दी में पांचवें मुग़ल बादशाह जहांगीर के शासनकाल के दौरान हुआ था । पूर्वी प्रान्तों में विद्रोह कुचलने के कारण, उनको ‘महाराज बहादुर शाही’ के खिताब और ‘माहे मरातिब’ के शाही चिन्ह से नवाज़ा गया । इनका राज, वर्तमान ‘पूर्वांचल’ या ‘भोजपुर’ में सक्रिय था, जिनमें पूर्वी उत्तर प्रदेश के इलाहबाद (वर्तमान प्रयागराज) गोरखपुर, आजमगढ़, बलिया जिले और कुशीनगर जिले में तामुखी राज, और बिहार के सारण, बक्सर और गोपालगंज जिले में हथुआ और हुस्सेपुर आते थे ।
अट्ठारहवीं शताब्दी में जब मुग़ल सल्तनत का पतन हो रहा था, तब बहादुर शाही एक स्वतंत्र ज़मींदार परिवार के रूप में उभरे, जिनके पास अब एक शक्तिशाली फ़ौज थी। इन्होंने बंगाल के नवाबों को उनके जंगों में सैन्य समर्थन दिया, जिनमें प्लासी (1757) और बक्सर (1764) के युद्ध भी शामिल थे ।
बहादुर शाहीयों को झटका तब लगा, जब इलाहबाद संधि (1765) के तहत, तत्कालीन मुग़ल बादशाह शाह आलम द्वितीय ने बंगाल, बिहार, ओडिशा की दीवानी ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथों सौंपी, जिसमें उनको राजस्व प्रशासन और वसूलने का अधिकार प्राप्त था। 1760 के अंतिम वर्षों में अंग्रेज अधिकारियों ने प्रत्येक जिले की ज़िम्मेदारी स्थानीय पर्यवेक्षकों को थमाई थी । मगर दुर्भाग्य से, उनके पास राजस्व वसूली करने के लिए अधिकाँश सैनिक मौजूद नहीं थे । इसके कारण वसूली की कार्रवाई में या तो उनको देर लगती थी, या फिर कई बार बीच में डाकू वसूले राजस्व को लूटकर ले जाती थी । ज़मींदारों के लिए ये एक बेहद चिंताजनक मामला था, और उन्होंने संयुक्त रूप से इसका कड़ा विरोध किया, जिनमें हुस्सेपुर भी था, जिसकी ज़िम्मेदारी महाराज फ़तेह बहादुर शाही के हाथों में थी।
दि लिमिटेड राज – एग्रेरियन रिलेशंस इन कोलोनियल इंडिया, सारण डिस्ट्रिक्ट, 1793-1920 (1990) में आनंद. ए. यांग बताते हैं, कि सन 1767 में जब कंपनी का एक प्रतिनिधि फ़तेह के हुस्सेपुर की हवेली में राजस्व वसूलने के लिए आया, तब फ़तेह न सिर्फ राजस्व देने से मना किया, बल्कि उस प्रतिनिधि और उसकी सैनिकों को अपने किले में नज़रबंद भी किया। जब ये खबर पटना पहुंची, तब अंग्रेजी सेना की एक टुकड़ी फ़तेह को गिरफ्तार करने के लिए हुस्सेपुर के लिए रवाना हुई। मगर वो इस मुहीम में नाकामयाब रहे, क्योंकि फ़तेह वहाँ से गोरखपुर की ओर निकल चुके थे, जहां से वो अपने रिश्तेदार की देखरेख में मझौली (देवरिया जिला, उत्तर प्रदेश) में रहे। यहाँ से, वो तामुखी राज में बस गए, जहां उनके वंशज आज भी रहते हैं। उस दौरान, फ़तेह की प्रजा ने उनको वहाँ लगान देना कायम रखा।
फ़तेह के इस साहस से नसीहत लेकर, कई ज़मींदारों ने भी अंग्रेजों के खिलाफ बगावत का बिगुल बजा दिया, जो आने वाले वर्षों में अंग्रेजों के लिए वित्तीय रूप से एक समस्या बनीं। मगर इसमें एक अंतराल तब आया, जब पूर्वांचल क्षेत्र में सन 1768 और 1769 में भयंकर अकाल आया। वो जमींदार, जो अपने तय किये राजस्व देने में असमर्थ थे, अपनी जमीनों से बेदखल कर दिए गए थे, और उनकी ‘भरपाई” के लिए, ये जमीनें सरकार को बेच दीं गईं थी। फ़तेह, जो अपने तामुखी राज की हवेली से इस माहौल का जायज़ा ले रहे थे, ने अपने सैनिकों को हुस्सेपुर जाने वाले ब्रिटिश राजस्व प्रतिनिधियों पर छापेमार युद्ध प्रणाली से हमला करने के लिए कहा। इन सब के बावजूद अंग्रेजों ने अपने साथ फ़तेह को शामिल करने की हैसियत से, उनके ‘गुनाहों’ को माफ़ करना और सालाना भारी पेंशन की पेशकश करने जैसे कई चालें चलीं, मगर ये सब नाकामयाब रहीं।
अपनी ताकत में इजाफा देने के लिए, फ़तेह ने सन 1773 में वाराणसी के महाराज चैत सिंह के साथ वैवाहिक गठबंधन बनाया , जिससे चैत ने फ़तेह के वित्तीय मामलों की ज़िम्मेदारी अपने हाथों में ली। स्थानीय मान्यताओं के अनुसार, जब अंग्रेजों को इस विवाह के बारे में पता चला, तो उन्होंने बनारस के किले को इस उम्मीद से घेरा कि अपनी बेटी के विवाह में फ़तेह ज़रूर शरीक होंगे। मगर पंडित के भेस में फ़तेह पारम्परिक पादुका पहनकर अंग्रेजी सैनिकों के सामने से गुज़रकर निकल गए और उनको चकमा दे दिया!
एक्स्प्लैनिंग चैत सिंह’स रिवोल्ट इन बिहार(1781): दि रोल ऑफ़ रिफ्रैक्टरी बिहार ज़मिन्दार्स (2007) में पारमिता महारत्ना बतातीं हैं, कि फ़तेह और चैत, दोनों की कई बिहारी ज़मींदारों से अच्छी रिश्तेदारी थी, और दोनों अपनीं चिट्ठियों में अंग्रेजी सैनिकों को कड़ी शिकस्त देने के लिए एक-दुसरे को प्रोत्साहित भी करते थे।
सन 1775 तक फ़तेह के कारनामें सिर्फ अपने चरम पर ही नहीं, बल्कि तत्कालीन गवर्नर-जनरल वारेन हेस्टिंग्स के कान तक भी पहुंचे, जब फ़तेह ने गोपालगंज और सारण जिले में हमला बोलकर, ढेर सारा माल लूटा और अपने रिश्तेदार बसंत शाही को भी मौत के घाट उतारा, जिसको अंग्रेजों ने हुस्सेपुर में राजस्व वसूलने के लिए मीर जमाल के साथ भेजा गया था। लेफ्टिनेंट जॉन औकिंसन (सोलहवीं बटालियन) ने 4 मई, 1775 ने पटना की प्रांतीय काउंसिल को एक चिट्ठी में इस घटना का ज़िक्र करते हुए बताया:
‘सूर्यास्त के दौरान, मुझे मीर मुग़ल से एक चिट्ठी मिली, जिसमें मुझे पता चला की पच्चीस घोड़ों के साथ फ़तेह शाही ने सुबह को बसंत शाही और मीर जमाल पर हमला कर, उनको मौत के घाट उतारा। फ़तेह बहादुर शाही ने ये कदम बसंत शाही की जालसाजी से क्रोधित होकर लिया। हालांकि, ऐसे हालात में, किसी भी स्वाभिमानी इंसान का ऐसा करना लाज़मी है…’
वहीँ दूसरी ओर, हेस्टिंग्स और उसकी समिति ने बिहार के लोगों को एक चिट्ठी लिखी। 14 जून 1775 को लिखी इस चिट्ठी का अनुवाद कई क्षेत्रीय भाषाओँ में किया गया, जिसमें फ़तेह की बगावत और उसके सिर पर लगे 10,000 रुपये के इनाम के बारे में ज़िक्र था।
फ़तेह के हमले तब बढ़े जब 1770 के दशक में बिहार और बंगाल में एक बार और अकाल आया, और यहाँ अंग्रेजों ने अपने राजस्व प्रणाली को कायम रखा। इन हालत में, अब कई और जमींदारों ने अंग्रेजों के खिलाफ हथियार उठाए। वहीँ कुछ वसूली में जालसाजी, तो कुछ नाफरमानी कर रहे थे। अंग्रेजों की दिक्कतें तब और बढीं, जब उसी दशक के अंतिम वर्षों में सन्यासी विद्रोह हुआ, जिसका फ़तेह ने पूरा फायदा उठाया, और कई अंग्रेजी चौकियां और इलाके काबिज़ किये।
इन सभी घटनाओं ने सन 1781 में हुए बिहार के विद्रोह का रूप लिया, जिसके तहत चैत सिंह ने मझौली, पडरौना, सारण और आसपास के कई इलाकों के ज़मींदारों के साथ हाथ मिलाया और अंग्रेजों के खिलाफ जंग का बिगुल बजा दिया। फ़तेह शाही के साथ मिलकर, अक्टूबर 1781 में उन्होंने अपनीं 12,000 आदमियों की फ़ौज को मुन्जूरा में जमा किया, और बड़ागाँव (आज वाराणसी जिले में) में अंग्रेजों के सैन्य ठिकाने पर कब्जा किया। जंग के दौरान हेस्टिंग्स बाल-बाल बचे, और अपने कुछ आदमियों की मदद से वो एक औरत के भेस में भाग निकलने में कामयाब हुए। इस युद्ध ने फ़तेह को अंग्रेजों की आँखों में सबसे खतरनाक करार दिया, जिन्होंने उसपर तय की गयी राशि दुगनी करके, 20,000 रुपये कर दी।
हालांकि ये विद्रोह बंगाल के रंगपुर तक फैला, मगर संगठन न होने के कारण, ये विफल रहा। वहीँ दूसरी ओर, फ़तेह के खिलाफ अपने पिता की हत्या का बदला लेने के लिए बसंत शाही का बीटा धुज्जू ने अंग्रेजों से हाथ मिलाया, और इन्होने मिलकर हुस्सेपुर किले को तबाह किया, जिसके बाद हेस्टिंग्स ने धज्जू को बेशकीमती उपहारों और सम्मानों से नवाज़ा।
1780 का दशक, भले ही अंग्रेजों के लिए सामरिक तौर पर सफल रहा हो, मगर फ़तेह ने बार-बार अपनी काबिलियत से अपने वक़्त-बेवक्त छापेमार हमले और उससे प्रेरित बगावतों से बहुत नुकसान दिया, जिससे अंग्रेजों के वित्तीय स्थिति भी खराब हुई। 1790 के दशक के आते-आते, जब अंग्रेजों का प्रभाव अवध सल्तनत पर बढ़ा, जिसके पूर्वी क्षेत्र फ़तेह के अधीन थे, तब फ़तेह के आक्रमण कम होते चले गए। वहीँ, हथवा में मौजूद फ़तेह के वशजों का कहना है, कि अपनी “आखिरी हमले’ के तौर पर, फ़तेह ने सन 1795 में चंपारण स्थित एक अंग्रेजी सैन्य अड्डे पर हमला बोला, और करीब 1,600 मवेशियों को अपने साथ ले गया। उसके बाद, वो साधू बनकर दक्षिण भारत की ओर रवाना हो गए। फिर भी, अंग्रेज़ ना कभी उनको पकड़ या ख़त्म कर पाए!
दिलचस्प बात ये है, कि अंग्रेजों ने कभी फ़तेह के किसी समर्थक को कभी सज़ा नहीं दी, क्योंकि उनको इस बात का डर था, कि कहीं उनके खिलाफ फिर से विद्रोह ना शुरू हो जाए। उन्नीसवीं शताब्दी के शुरूआती वर्षों से, फ़तेह की हवेलियाँ अंग्रेजों के हाथ आने शुरू हुए। हालांकि इसमें काफी वक़्त इसीलिए लगा, क्योंकि अंग्रेज फ़तेह के जाने के बाद भी उनके हमले से भयभीत थे।
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