हर चुनाव कुछ कहता है.

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(धीरेंद्र कुमार)

75 सदस्यीय बिहार विधान परिषद के 24 सीटों के लिए हुए मतदान का परिणाम समाने है।  13 सीट जीतने के बाद बाजी एनडीए के हाथ लगी। वहीं 06 सीट जीतने के बावजूद बाजीगर कहलाने के हक राजद को है। यूं तो विधानपरिषद चुनाव के नतीजे सरकार की सेहत पर सीधे असर नहीं डालते फिर भी हर चुनाव कुछ कहता है।

आम लोगों के बीच धारणा आम है कि विधानपरिषद का चुनाव चुनिंदा लोग ही करते हैं. इसलिए इस चुनाव को जनता का मत / मिजाज ना समझा जाए। मैं इस परंपरागत धारणा को सिरे से नकारता हूं। ये सही है कि इस चुनाव से सरकार की सेहत पर तुरंत असर नहीं पड़ने वाला। फिर भी, इसकी अनुगूंज देर तक और दूर तक सुनी जाएगी।

क्या कहता है यह चुनाव?

इस विधानपरिषद चुनाव के मतदाताओं की कैटेगरी को देखिए। कौन हैं ये लोग? ये वो लोग हैं जो भारतीय लोकतंत्र की क्रमतालिका में जनता से सीधे चुने गये हैं।इनमें वार्ड सदस्य, पंचायत समिति सदस्य, मुखिया, जिला पार्षद, एमएलए, एमएलसी, सांसद शामिल हैं। इन तमाम मतदाताओं की मतों का वैल्यू बराबर है। अब जरा शहर से लेकर गांव तक की राजनीतिक फिजां पर गौर कीजिए। वो कौन लोग होते हैं जो किसी भी पार्टी के पक्ष में या विरोध में माहौल बनाते हैं। आप कहेंगे राजनीतिक दल के कार्यकर्ता। मैं आपकी बात को नकारता हूं। दरअसल राजनीतिक दल के कार्यकर्ता की बातों का जनता पर प्रभावी असर नहीं होता। जनता जानती है कि वो क्या और क्यों कह रहा है। वहीं उसी बात को मुखिया, पंचायत समिति सदस्य या त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था का आदमी कहता हो तब जनता उनकी बातों को सीरियसली लेती है। वजह साफ है। ये वो लोग हैं जो नीचले स्तर पर जनसरोकार को लेकर जनता से सीधे संवाद करते हैं और उनका काम करवा कर या ना करवा कर उनपर प्रभाव रखते हैं। दूसरी बात बिहार में त्रिस्तरीय पंचायती राज में चुना गया हर व्यक्ति दल से आबद्ध नहीं है। लिहाजा उसकी बात आम मतदाताओं के लिए राजनीतिक निष्ठा से मुक्त है।

आज मैसेज क्या है?

बात मंदिर आंदोलन के दौर की है। बिहार भाजपा के भीष्म पितामह कैलाशपति मिश्र से लाल कृष्ण आडवाणी ने पूछा था कि बिहार में राजनीतिक रूप से सबसे प्रभावी कौन सी जातियां हैं। श्री मिश्र का जवाब था सवर्णों में भूमिहार, पिछड़ों में यादव और दलितों में पासवान। कतिपय सामाजिक राजनीतिक कारणों से कालांतर से ही बिहार में भूमिहार और यादव एक दूसरे के खिलाफ रहे। कालांतर की इस दूरी को 24 विधानपरिषद सीटों पर हुए चुनाव ने बहुत हद तक पाट दिया। लेकिन, बात यहीं पर खत्म नहीं होती। इस चुनाव में भाग्य आजमा रहे उम्मीदवारों के सामाजिक चरित्र को देखने पर कुछ संकेत चौकाने वाले दिखते हैं। राष्ट्रीय जनता दल जिसकी पहचान यादव और मुस्लिमों की पार्टी के रूप में है। इसके 10 यादव उम्मीदवार में से 09 चुनाव हार गये। एक भी मुसलमान कैंडिडेट किसी भी खेमे से जीत नहीं दर्ज कर सका। दूसरी ओर पहली बार राजद ने 24 में 05 उम्मीदवार अपनी धूर विरोधी जाति भूमिहारों को दिया। इन पांचों में से 03 जीतने में कामयाब रहे और एक उम्मीदवार अपनों की चालबाजी के कारण मामूली अंतर से हार गया। मतलब साफ है। अब अगर राजद भूंमिहार (सवर्ण) को आगे कर चुनावी मैदान में उतरती है तो इसके लिए जीत का स्ट्राइक रेट औसत से अधिक रहेगा और विधानसभा में 20 वर्षों का वनवास समाप्त होगा।

दरअसल बिहार में भाजपा सहित पूरे एनडीए को खड़ा करने में सबसे मुखर भूमिका भूमिहारों की रही है। लेकिन छद्म सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर भाजपा सहित सभी एनडीए के घटक दलों ने इस जाति की उपेक्षा की। 20 साल बीतते बीतते सब्र का बांध टूटने लगा। अपने नेताओं की उपेक्षा ने इसे एनडीए से बागी होने पर मजबूर कर दिया। लिहाजा अगर राजद के टिकट पर 05 में तीन भूमिहार उम्मीदवार जीतने में कामयाब रहे तो इसे नये सामाजिक राजनीतिक समीकरण का सूत्रपात मानिए।

हालांकि 24 विधानपरिषद की सीटों पर भाजपा 12 सीटों पर चुनाव लड़ रही थी जद यू 11 पर और लोजपा का पारस खेमा 01 सीट पर। 13 सीटों के साथ तीनों ने बहुमत तो पाया है लेकिन इस जीत में भी इनकी हार है। 24 सीटों में से इनके पास 18 सीटें थी. लिहाजा 06 सीटों का सीधा नुकसान है। दूसरी और इस बार भाजपा 12 में से 07 सीट जीत पाई तो जद यू के पास 11 में से मात्र 05 सीटें ही रही। लोजपा का पारस खेमा 01 सीट पर लड़ी और जीतने में कामयाब रही।  भाजपा वैश्य समुदाय के साथ तालमेल करते हुए अपनी सीट जीतती हुई दिख रही है।  हालांकि वैश्य वर्ग के साथ के समीकरण में भाजपा के लिए नया कुछ नहीं है। लेकिन गौर कीजिए! वैश्य वर्ग कभी भी सत्ता से नाराजगी मोल नहीं लेता। लिहाजा अगर राजद का पलड़ा भारी हुआ तो महंगाई और अफसरशाही ये दो ऐसे शब्द हैं जिनको आधार बनाकर ना सिर्फ वैश्य बल्कि रोजी रोटी की लड़ाई में पिछड़ा हर व्यक्ति पिछड़ों के मसीहा यानी लालू के साथ होगा। साथ ही राजनीति के शिकार चिराग पासवान और मुकेश सहनी भी एनडीए के खिलाफ ही मोर्चा खोलेंगे। लिहाजा गैर एनडीए गठबंधन का पलड़ा भारी हो सकता है।

दरअसल 24 विधानपरिषद की सीटों पर हुए इस चुनाव ने हर दल को मौका दिया है। राजद के लिए नया समीकरण गढ़ने का अवसर हैं। एनडीए के लिए संभलने की चुनौती। एनडीए लगातार अपने कोर वोटर को किनारे कर कुछ प्रयोग कर रही है। कहीं ऐसा ना हो कि प्रयोगशाला की भट्ठी में अपना ही चेहरा झुलस जाए। राजनीति विज्ञान अवश्य है। लेकिन सामाजिक विज्ञान है। इसका ख्याल रखना होगा। आने वाला वक्त ऐसा नारा भी सुना सकता है कि ‘ मोदी तुझसे बैर नहीं लेकिन बिहार में एनडीए की खैर नहीं’।

(धीरेंद्र कुमार)

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