हिंदी राष्ट्र भाषा क्यों नही बनी, सिर्फ राजभाषा ही क्यों है.

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डॉ० ममतामयी प्रियदर्शिनी

दोस्तों, भारत विविधताओं से भरा देश है जिसके हर राज्य की अपनी अलग राजनैतिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक पहचान है। यहां सैंकड़ों भाषाएं और बोलियां हैं। पर भारत की कोई  एक_राष्ट्रभाषा नहीं है। हालांकि देश में सबसे ज्यादा बोली और समझे जाने वाली भाषा #हिंदी है पर संविधान में हिंदी को भारत की #राजभाषा का दर्जा मिला है, #राष्ट्रभाषा का नहीं। आइए समझते हैं हिंदी की राजभाषा बनने की यात्रा को।

सर्वाधिक लोगों द्वारा बोले और समझे जाने के कारण, #राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने हिंदी को जनमानस की भाषा कहा था और वर्ष 1918 में आयोजित हिंदी साहित्यसम्मेलन में हिंदी को राष्ट्र भाषा बनाने की पैरवी की थी। पूर्व प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी इसके पक्षधर थे।

आजादी के उपरांत, हिंदी को राष्ट्रभाषा की मान्यता दिलाने लिए जबलपुर, मध्यप्रदेश, में जन्मे हिंदी के मूर्धन्य साहित्यकार, व्यौहार राजेन्द्र सिम्हा जी (जीवन काल: 14 सितम्बर 1900 – 02 मार्च 1988) ने भी काका कालेलकर, मैथिलीशरण गुप्त, हजारीप्रसाद द्विवेदी, महादेवी वर्मा, सेठ गोविन्ददास आदि विशिष्ट साहित्यकारों को साथ अथक प्रयास किए। उन्होंने दक्षिण भारत की कई यात्राएं भी की और लोगों को इसके लिए मनाने का प्रयास किया।

इसी दौरान, आजादी के बाद जब संविधान निर्माण की प्रक्रिया शुरू हुई तो हर पहलू पर सघन और लंबी बहसें हुईं ताकि किसी राज्य या समाज के किसी भी तबके को ये ना लगे कि संविधान में उनकी बात नहीं कही गई है। लेकिन सबसे ज्यादा #विवादित मुद्दा रहा कि संविधान को किस भाषा में लिखा जाए, किस भाषा को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिया जाए और इसे लेकर संविधान सभा एक मत नहीं हो पा रही थी।

तब राष्ट्रपिता महात्मा गांधी जी और पंडित जवाहर लाल नेहरू जी ने हिंदुस्तानी (हिंदी और ऊर्दू का मिश्रण) भाषा का समर्थन किया, परंतु देश विभाजन की वजह से लोगों के मन में काफी गुस्सा था, इसलिए हिंदुस्तानी भाषा की जगह शुद्ध हिंदी के पक्षधर का पलड़ा ज्यादा भारी था।उधर दक्षिण भारत के सदस्य हिंदुस्तानी और हिंदी दोनों भाषा के खिलाफ थे और संविधान सभा में इस मुद्दे पर जोरदार बहस छिड़ गई। इतिहासकार रामचंद्र गुहा की किताब #इंडियाआफ्टरगांधी में एक जगह लिखा है कि मद्रास का प्रतिनिधित्व कर रहे टी. टी. कृष्णामचारी ने कहा कि मैं दक्षिण भारतीय लोगों की ओर से चेतावनी देना चाहूंगा कि दक्षिण भारत में पहले ही कुछ ऐसे घटक हैं जो बंटवारे के पक्ष में हैं। अगर यूपी के दोस्त हिंदी साम्राज्यवाद की बात करेंगे तो हमारी समस्या और बढ़ जाएगी। अतः पहले यह तय कर लें कि हमें #अखंडभारत चाहिए या #हिंदीभारत। तब लंबी बहस के बाद सविधान सभा इस फैसले पर पहुंची कि हिंदी  भारत की “राजभाषा” होगी लेकिन संविधान लागू होने के 15 साल बाद तक, यानि 1965 तक, सभी राजकाज के काम अंग्रेजी भाषा में भी किए जा सकेंगे।

1965 में राष्ट्र भाषा पर फैसला होना था। तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा देने का फैसला कर लिया था लेकिन इसके बाद तमिलनाडु में हिंसक प्रदर्शन शुरू हो गए, दक्षिण भारत के कई इलाकों में हिंदी की किताबें जलने लगीं तथा कई लोगों ने तमिल भाषा के लिए अपनी जान तक दे दी। तत्पश्चात कांग्रेस वर्किंग कमिटी ने फैसला लिया कि हर राज्य अपने यहां होने वाले सरकारी कामकाज के लिए कोई भी भाषा चुन सकता है तथा केंद्रीय स्तर पर हिंदी और अंग्रेजी, दोनों भाषाओं का इस्तेमाल किया जाएगा। इस तरह, हिंदी कड़े विरोध के बाद,संवैधानिक रूप से देश की सिर्फ राजभाषा बन पाई, राष्ट्रभाषा नहीं।

भारत की कोई राष्ट्रभाषा नहीं है, हिंदी एक राजभाषा है यानि कि राज्य के कामकाज में इस्तेमाल की जाने वाली भाषा। भारत में 22 भाषाओं को आधिकारिक दर्जा मिला हुआ है, जिसमें हिंदी भी शामिल है।

अंततः 14 सितम्बर 1949 को, व्यौहार राजेन्द्र सिन्हा जी के जन्मदिवस के दिन, हिंदी भाषा की स्वीकार्यता के लिए उनके अथक संघर्ष को सम्मान देते हुए, हिन्दी को भारतीय-संघ की आधिकारिक (राष्ट्रीय) राजभाषा, और देवनागरी को आधिकारिक (राष्ट्रीय) लिपि, की मान्यता मिली।

दोस्तों, सन् 1953 से हरेक साल 14 सितंबर को सभी प्रांतों में हिंदी की स्वीकार्यता बढ़ाने और हिंदी के इस्तेमाल को बढ़ावा देने के उद्देश्य से हिंदी दिवस मनाया जाता है।

#नोट: भारत के सविधान के भाग 17 में अनुच्छेद 343 से 351 में  “संघ की राजभाषा” का वर्णन है। संविधान का भाग 17 फोटो में नीचे अटैच्ड है, आप युवाओं को पढ़ना चाहिए। (

डॉ० ममतामयी प्रियदर्शिनी

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