बात साल 2005 की है। नया कॉलेज और नई नई आज़ादी के सतरंगी-चमकीले पंखो की उड़ान बस शुरु ही हुई थी। ट्रेन, बस, ऑटो, पढ़ाई, यारी-दोस्ती सब मिलाकर सहर से शब तक का सफर मानो पलक झपकते बीतने लगा। कॉलेज में टिफ़िन न ले जाने जाने क्यों अचानक से आउटडेटेड हो गया। मेरे टिफ़िन न ले जाने की ज़िद के आगे माँ ने भी हार मान ही ली। तय हुआ कि मैं स्टेशन से बेकरी वाले चौकोर केक खरीद कर खा लिया करुँगी और बाकी की भूख के लिए “कॉलेज कैंटीन ज़िंदाबाद”।
अचानक एकदिन कुछ नया हुआ। उस दिन स्टेशन में भीड़ कुछ ज़्यादा ही थी। मैंने थोड़ी फुर्ती दिखाई और भीड़ से हटकर पास बने RPF बूथ की दीवार के सामने खड़ी हो गई। अचानक ही मुझे वही मैली-कुचली चादर पर पालथी मारे बैठे एक बिना दांतो का चिपटा-सा मुस्कुराता चेहरा दिख गया। पास ही एक लाल पोटली भी रखी थी। मैंने ज़्यादा ध्यान नहीं दिया और आगे बढ़ गई।
दूसरे दिन प्लेटफार्म पर भीड़ ज़रा कम थी। जाने क्यों मैंने ओवरब्रिज से जाने की जगह RPF पोस्ट के पास बनी सीढ़ियों से जाने का फैसला किया। बाबा-जी यथास्थिति अपनी मैली कुचली और फटा पुराना कुर्ता पहने वही दंतुरित मुस्कान लिए बैठे मिल गए। मैंने अपने बैग से कुछ चिल्लर पैसे उनकी चादर में रख दिए और आगे बढ़ गई।
दूसरे दिन मैंने जाने क्यों अपनी favourite केक बाबा जी के चादर पर रख दिया। केक देखकर वो अचानक खिलखिलाकर हँस उठे। कितनी पाक, पवित्र, निश्छल-सी मुस्कान, ठीक नागार्जुन की कविता “दंतुरित मुस्कान” वाली कविता के नन्हें बालक जैसे लग रहे थे। तभी पीछे से आवाज़ आई “बेटा!बाबा जी बोल और सुन नहीं सकते। कोई पैसे देता है तो लाल पोटली में रख लेते है पर कोई खाना देता है तो ऐसे ही खिलखिला कर हँस उठते है। RPF के उस जवान ने बताया।
बाबा जी के साथ रोज़ बेकरी वाले केक शेयर करने का सिलसिला पूरे आठ महीने चला। थोड़ी देर की वो मुलाक़ातें मेरी आदत सी बन गई। और कुछ आदतें छूटनी भी नहीं चाहिए। मैंने कॉलेज यूनियन में अपनी पहचान की कुछ सीनियर से बातें करके बाबा-जी के लिए स्टेशन के ही एक स्टॉल से भोजन की व्यवस्था करवा दी। मुझे और बाबा जी को रोज़ सुबह एक दूसरे का इंतज़ार होने लगा।
अचानक पंद्रह दिनों के लिए हमें गाँव जाना पड़ गया। मसला गंभीर था। सुलझाने में वक़्त लग गया। इंसानी मन भी कभी कभी बंजारा बन जाता है। जहाँ ठहरे, वहीं रम जाए। कॉलेज, ट्युशन, ट्रेन, बस, बाबा जी सब मानो इन पंद्रह दिनों में किसी अदृश्य पर्दे के पीछे ढक गए थे। खैर वापिस लौटी तो फिर से वहीं ट्रेन की पटरी, बस स्टॉप की भीड़, RPF बूथ सब एकाएक उस अदृश्य पर्दे से निकल कर सामने आ गए। बस आए नहीं तो बाबा जी। थोड़ी विस्मित सी मैंने आस पास नज़रें दौड़ाई पर न बाबा मिले न उनकी लाल पोटली। घबराहट, हड़बड़ाहट और पसीने से तरबतर मैं RPF बूथ में दाखिल हुई-“सर! वो लाल पोटली वाले बाबा जी कहाँ गए??? “उस जवान ने बताया कि सात दिन पहले दिल का दौरा पड़ने से वो ज़िन्दगी की बाज़ी हार गए। मेरे पैरों में कँपकंपी सी दौड़ गई, दिल की धड़कने इतनी तेज़ी से चलने लगी की सामने वाले तक को सुनाई दे। मेरा पूरा चेहरा आँसुओ से तरबतर हो चुका था। बस इतनी सुन सकी कि बाबा जी के दाह संस्कार के बाद जब म्युनिसिपलिटी वालों ने उनकी लाल पोटली खोली तो उसमे से ढेरों चिल्लर पैसे, कुछ फटे पुराने फ्रॉक, एक छोटी बच्ची की पुरानी तस्वीर और बेकरी वाले केक के ढेरों रेपर्स मिले। मेरे कदमों ने लड़खड़ाते हुए प्लेटफार्म से बाहर निकलना शुरु किया, मेरे हाथ से केक का पैकेट छूट कर ज़मीन पर गिर पड़ा।
“खून के रिश्तों ने आईने में मुझे, बस मेरी कमियाँ ही दिखाई है ;वो तो कुछ अजनबी से रिश्ते हैं, जिन्हें मुझमें मोहब्बत भी नज़र आई है”।
स्वरचित
(गार्गी इवान )
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