कनक लता
फेसबुक पर यह कथा पहले भी आयी है, आज पुष्पेंद्र कुलश्रेष्ठ के ग्रुप में पुनः पोस्ट हुई है. उसे मैं थोड़े संशोधन के साथ आभार सहित यहां फिर से कहना चाहता हूं.
यहूदी जब बेबीलोन में निर्वासित जीवन जी रहे थे तो वहां की नदियों के तट पर बैठकर येरूशलम की ओर मुंह करके रोते और विरह गीत गाते थे. उन्होंने वहां सौगंध ली कि हम तब तक कोई आनंदोत्सव नहीं मनाएंगे जब तक कि हमें हमारा येरुशलम, हमारा जियान पर्वत दोबारा वापस नहीं मिल जाता. 1500 सालों के निर्वासित जीवन में न कोई हर्ष, न गीत, न संगीत और सिर्फ़ अपनी मातृभूमि की वेदना ....
इसकी तुलना अपने देश से निर्वासित समाजों की आज की संततियों से कीजिये जो आज भारत में हैं.
- जो अफगानिस्तान तत्कालीन गांधार मद्र से निकाले गए,
- फिर जो पंजाब, पाकिस्तान से, सिंध से बलात् से निकाले गए, बलात् धर्म परिवर्तित हुए,
- जो बंगाल आज बांग्लादेश से निकाले गए, लगातार आज भी निकाले जा रहे हैं.
- और जो कश्मीर से सात बार निकाले गए, क्या उन सब के अंदर अपनी उस खोई हुई भूमि के लिए कोई वेदना है ? क्या कोई ज्वाला है उनमें …?
इन निर्वासितों की किसी संस्था को कभी अखंड भारत के लिए कोई कार्यक्रम आयोजित करते, उस पीड़ा को व्यक्त करते देखा या सुना है ?
अपने छोड़े गए शहर, पहाड़, नदी आदि की स्मृति को क्या उन्होंने किसी रूप में संजोया हुआ है ?
क्या वे कोई विरह गीत अपनी उस खो गई भूमि के लिए गाते हैं ?
क्या वे अपनी संततियों को समझाते हैं कि उनके दादा-पड़दादा को क्यों, कब और किसने कहाँ से निकाला था ?
उन्होंने कभी सोचा कि आगे क्या करना है …?
नहीं !
साथ ही ….
लेकिन क्या हमलोग जो मुख्य भूमि भारत के व दो समुद्रों के मध्य क्षेत्र के निवासी है, हमने भी कभी महसूस किया कि जहां से ये शर्णाथी बन कर यहां आए हैं, वह हिंदूकुश, वह सिंधु किशनगंगा, वे पंचनद के प्रदेश जहां वेदों की रचना हुई थी वे सब कभी हमारे थे.
क्या हम सब भारत के लोग कभी सोचते भी हैं कि हम पुनः उन सीमाओं तक पहुंचेंगे जो हमारी थीं …? क्या किसी स्कूल का कोई अध्यापक कभी बालकों को बताता है कि हम कौन हैं, हमारी पराजयें क्या हैं ? हमारे जीवन का उद्देश्य, लक्ष्य क्या है ? हमें अपनी पुरानी सरहदों तक पहुंचना है, कोई बताता है ?
क्या हमारे पूर्वज कोई सपने हमारी आंखों में छोड़ गये हैं … ??
नहीं !
कल हम आप भी यदि मुख्यभूमि भारत से आक्रांताओं द्वारा से खदेड़ दिये गये या गुलाम बना लिए गये तो क्या हम अपनी सभ्यता संस्कृति की स्मृति व विजय की जिजीविषा को उसी तरह जी पायेंगे जैसा बेबीलोन के निर्वासित यहूदी जीते रहे थे…
शायद नहीं ..!
एक सभ्यता के रूप में हमारी हार का सबसे बड़ा सबूत यही है कि न तो हमें भारतवर्ष के अधूरे मानचित्र को देखकर दर्द होता है और न ही हमें हमारी खोई हुई भूमि, नदियां, पर्वत और लुटे खण्डित ध्वस्त धर्मस्थान पीड़ा देते हैं …! न हमारी आत्मा ही हमें कभी झकझोरती है ….!!!
यदि हम स्वप्रेरणा से जाग्रत न होंगे …
….. तो कौन जगायेगा हमें ??
…
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