हिंदु धर्म में अगर महिला को पीरिएड्स होते हैं तो वो कोई भी शुभ या धर्म का काम नहीं कर सकती. लेकिन असम में एक मात्र ऐसा मंदिर है जहां पर पीरिएड के समय में भी महिलाएं मंदिर के अंदर जा सकती हैं.
इतिहास और इससे जुड़ी आस्थाओं के बारे में. हिंदु धर्म में अगर महिला को पीरिएड्स होते हैं तो वो कोई भी शुभ या धर्म का काम नहीं कर सकती. लेकिन असम में एक मात्र ऐसा मंदिर है जहां पर पीरिएड के समय में भी महिलाएं मंदिर के अंदर जा सकती हैं. इस मंदिर का नाम है कामाख्या शक्तिपीठ. ये वो मंदिर है, जहां पर देवी की माहवारी के समय पूजा की जाती है. यानी की महिलाएं यहां अपने मासिक के दिनों में जा सकती हैं.
देवी सती की पूजा योनि के रुप में की जाती
ऐसा कहा जाता है कि भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र के साथ मां सती को काट दिया था. ऐसा कहा जाता है कि देवी सती का योनि भाग कामाख्या में गिरा था. हिन्दू धर्म और पुराणों के मुताबिक, जहां-जहां सती के अंग या धारण किए हूए वस्त्र और आभूषण गिरे थे वहां पर शक्तिपीठ अस्तित्व में आए. इस तीर्थस्थल पर देवी सती की पूजा योनि के रुप में की जाती है जबकि यहां पर कोई देवी की मूर्ति नहीं है. यहां पर सिर्फ एक योनि के आकार का शिलाखंड है. जिस पर लाल रंग के गेरू की धारा गिराई जाती है
दिया जाता है अनोखा प्रसाद
यहां बड़ा ही अनोखा प्रसाद दिया जाता है. दरअसल यहां तीन दिन मासिक धर्म के चलते एक सफेद कपड़ा माता के दरबार में रख दिया जाता है. और तीन दिन बाद जब दरबार खुलते है तो कपड़ा लाल रंग में भीगा होता है. जिसे प्रसाद के रूप में भक्तों को दिया जाता है. माता सती का मासिक धर्म वाला कपड़ा बहुत पवित्र माना जाता है. ये मंदिर 51 शक्ति पीठों में से एक है. मां के सभी शक्ति पीठों में से कामाख्या शक्तिपीठ को सर्वोत्तम माना गया है. इस कपड़े को अम्बुवाची कपड़ा कहा जाता है. इसे ही भक्तों को प्रसाद के रूप में दिया जाता है.
दी जाती है बलि
यह देश के उन चंद हिंदू मंदिरों में से एक है, जहां पर आज भी जानवरों की बलि दी जाती है. इस मंदिर के पास एक कुंड है जहां पर पांच दिन तक दुर्गा माता की पूजा भी की जाती है और यहां पर हजारों की संख्या में भक्त लोग दर्शन के लिए प्रतिदिन आते हैं. इस मंदिर में कामाख्या मां को बकरे, कछुए और भैंसों की बलि चढ़ाई जाती है और वहीं कुछ लोग कबूतर, मछली और गन्ना भी मां कामाख्या देवी मंदिर में चढ़ाते हैं. वहीं ऐसा भी कहा जाता है कि प्राचीनकाल में यहां पर मानव शिशुओं की भी बलि चढ़ाई जाती थी लेकिन समय के साथ अब ये प्रथा बदल गई है. अब यहां पर जानवरों के कान की स्किन का कुछ हिस्सा बलि चिह्न मानकर चढ़ा दिया जाता है. यही नहीं इन जानवरों को वहीं पर छोड़ दिया जाता है.
तंत्र-मंत्र साधना के लिए जाना जाता है कामाख्या शक्तिपीठ
मां कामाख्या का पावन धाम तंत्र-मंत्र की साधना के लिए जाना जाता है. कहते हैं कि इस सिद्धपीठ पर हर किसी कामना पूरी होती है. इसीलिए इस मंदिर को कामाख्या कहा जाता है. यहां पर साधु और अघोरियों का तांता लगा रहता है. मंदिर में आपको जगह-जगह पर तंत्र-मंत्र से संबंधित चीजें मिल जाएंगी. अघोरी और तंत्र-मंत्र करने वाले लोग यहीं से इन चीजों को लेकर जाते हैं.
कामाख्या मंदिर का इतिहास
कामाख्या मंदिर भारत में सबसे पुराने मंदिरों में से एक है और स्वाभाविक रूप से, सदियों का इतिहास इसके साथ जुड़ा हुआ है. ऐसा माना जाता है कि इसका निर्माण आठवीं और नौवीं शताब्दी के बीच हुआ था. भारतीय इतिहास के मुताबिक, 16वीं सदी में इस मंदिर को एक बार नष्ट कर दिया गया था. फिर कुछ सालों बाद बिहार के राजा नारायण नरसिंह द्वारा 17वीं सदी में इस मंदिर का पुन: निर्माण कराया गया.
तीन हिस्सों में बना है कामाख्या शक्तिपीठ
कामाख्या मंदिर तीन हिस्सों में बना है. पहला हिस्सा सबसे बड़ा है और इस हिस्से में हर व्यक्ति को नहीं जा सकता. दूसरे हिस्से में माता के दर्शन होते हैं जहां एक पत्थर से हर समय पानी बहता रहता है. महीने के तीन दिन ये मंदिर बंद रहता है. चमत्कारों और रोचक तथ्यों से भरे इस शक्तिपीठ में विजय की कामना लिए क्या संतरी और क्या मंत्री माथा टेकने जरूर पहुंचता है.
कहां स्थित है मंदिर
कामाख्या मंदिर असम की राजधानी दिसपुर से लगभग 7 किमी दूर है. ये शक्तिपीठ नीलांचल पर्वत से 10 किमी की दूरी पर स्थित है. जहां न केवल देश के लोग बल्कि अलग-अलग देशों से भी इस मंदिर में देवी के दर्शन करने आते हैं. ये मंदिर हिंदू तीर्थयात्रियों के लिए एक प्रमुख स्थल है.
यहां लगता है अम्बुवाची मेला
हर साल यहां पर अम्बुवाची मेला लगता है. इस दौरान पास में स्थित ब्रह्मपुत्र का पानी तीन दिन के लिए लाल हो जाता है. ऐसा माना जाता है पानी का ये लाल रंग कामाख्या देवी के मासिक धर्म के कारण होता है. फिर तीन दिन बाद दर्शन के लिए यहां भक्तों की भीड़ मंदिर में उमड़ पड़ती है.
भैरव के दर्शन करना अनिवार्य
कामाख्या मंदिर से कुछ दूरी पर उमानंद भैरव का मंदिर है. उमानंद भैरव ही इस शक्तिपीठ के भैरव हैं. यह मंदिर ब्रह्मपुत्र नदी के बीच में टापू पर स्थित है. ऐसी मान्यता है कि इनके दर्शन के बिना कामाख्या देवी की यात्रा अधूरी मानी जाती है. इस टापू को मध्यांचल पर्वत के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि यहीं पर समाधिस्थ सदा शिव को कामदेव ने कामबाण मारकर आहत किया था और समाधि जाग्रत होने पर शिव ने अपने तीसरे नेत्र से उन्हें भस्म किया था. भगवती के महातीर्थ नीलांचल पर्वत पर ही कामदेव को पुनः जीवनदान मिला था, इसलिए ये इलाका कामरूप के नाम से भी जाना जाता है.
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