- मुरली मनोहर श्रीवास्तव
जातीय जनगणना पर देश का सियासी पारा दिनोंदिन चढ़ता ही जा रहा है। भाजपा नेता जहां इस जातीय जनगणना के विपक्ष में हैं उन्हीं के साथ सूबे की सहयोगी पार्टियां भले ही खुलकर नहीं बोल रही हैं मगर इसका ठीकरा केंद्र पर फोड़ने से बाज नहीं आ रही है। उनका भी तर्क अपना है कि आखिर जातीय जनगणना कराने में क्या परेशानी है?
सबसे पहले रुख करते हैं बिहार की, यहां एनडीए की सरकार है। जातीय जनगणना को लेकर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अपने बयान से स्पष्ट कह दिया है कि जातीय जनगणना को लेकर केंद्र सरकार को एकबार विचार करना चाहिए। साथ ही अगर केंद्र इस कर पाने में अपनी सहमति नहीं देती है तो बिहार अपने बूते कर्नाटक की तर्ज पर जाति आधारित जनगणना करा सकती है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने साफ-साफ कह दिया है कि पूरे देश में एक जाति की कई उपजातियां होती है। यदि हाउसहोल्ड सर्वे में आप किसी की जाति पूछेंगे तो पड़ोसी यह बता सकता है कि उसके बगल में रहने वाले पड़ोसी किस जाति से तालुकात रखते हैं। जदयू के वरिष्ठ नेता एवं राष्ट्रीय महासचिव केसी त्यागी ने कहा कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने सर्वदलीय बैठक बुलाई है। इस बैठक में जो भी निर्णय होगा हम लोग उसके साथ हैं। लेकिन यह तय है कि जातीय जनगणना होगी यह सभी के लिए है। सिर्फ पिछड़े, अति पिछड़े ही नहीं सभी के लिए जातीय जनगणना जरूरी है।
मगर दूसरी तस्वीर से स्पष्ट हो गया है कि केंद्र ने नीतीश की बातों को तवज्जो नहीं दी है। केंद्र सरकार के जातीय जनगणना से इनकार किए जाने के बाद जातीय जनगणना पर अड़े बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की तल्खी बढ़ गई है। इसी आधार पर नीतीश कुमार जातीय जनगणना को आधार बनाकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से दूरी बना सकते हैं।
जातीय जनगणना को लेकर बिहार में विपक्ष और पक्ष सिर्फ भाजपा को छोड़कर एक साथ हैं और एक राग अलाप रहे हैं। जबकि इस जनगणना वाले मुद्दे पर नीतीश को अपना अगुवा मान रहे हैं। आपको याद दिला दूं कि जाति आधारित जनगणना को लेकर बिहार में जदयू, राजद, कांग्रेस, हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा व विकासशील इंसान पार्टी का स्वर होने से बिहार का राजनीतिक नजारा बदल सकता है। देश स्तर पर जाति आधारित जनगणना के बहाने एक नया गठजोड़ बनने के संकेत मिल रहे हैं। नीतीश कुमार की देश में अपनी एक अलग छवि है उनकी छवि विकास करने को लेकर मानी जाती है। उनके नेतृत्व में जातीय जनगणना की बिहार से उठी यह मांग देशव्यापी होने की बात से इंकार नहीं किया जा सकता है।
2015 के अप्रैल-मई में कर्नाटक में 1.3 करोड़ घरों में सर्वे हुआ था। इस सर्वे का नाम सोशल एंड एजुकेशनल सर्वे दिया गया था। इसमें 1.6 लाख कर्मियों को लगाया गया था। जिस पर सरकार ने 169 करोड़ रुपये खर्च किए थे। उसके बाद भी अभी रिपोर्ट नहीं आ सकी है। बिहार के साथ-साथ देश के दूसरे क्षेत्रीय दल भी जातीय जनगणना कराने की पुरजोर मांग कर रहे हैं। अब ऐसे में देश में परिवर्तन की जो अंडर करेंट है उसको हवा मिल सकती है और नीतीश कुमार इसके नेता चुने जा सकते हैं। बात अगर नीतीश कुमार की करें तो हर बात वो स्पष्ट तरीके से रखते हुए कहते हैं कि जातीय जनगणना को लेकर हम आपस में बात करेंगे और आगे क्या करना है यह बातचीत कर ही तय करेंगे। नीतीश कुमार के इस बयान से स्पष्ट हो गया है कि आने वाले दिनों में बिहार में बड़ा राजनीतिक बदलाव देखने को मिल सकता है। जातीय जनगणना को लेकर नीतीश कुमार ने अपनी बात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलने से पहले ही साफ कर दिया था कि जरूरत पड़ने पर वह खुद जातीय जनगणना करा सकते हैं। विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव ने जातीय जनगणना कराने को लेकर विभिन्न पार्टियों के 33 प्रमुख नेताओं को पत्र लिखकर गोलबंद करने की कवायद शुरू कर दी है। अब ऐसे में बिहार में परिवर्तन के संकेत मिलने लगे हैं। साथ ही बिहार से अगर विरोध के स्वर निकलते हैं तो देश की राजनीति पर इसका विशेष असर पड़ सकता है।
मुरली मनोहर श्रीवास्तव
लेखक सह पत्रकार
पटना
मो.-9430623520
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