प्रेम क्या है? किसी को पाना या खुद को खो देना? एक बंधन या फिर मुक्ति? जीवन या फिर जहर? इसके बारे में सबकी अपनी अपनी राय हो सकती हैं,लेकिन वास्तव में प्रेम क्या है
मूल रूप से प्रेम का मतलब है कि कोई और आपसे कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण हो चुका है। यह दुखदायी भी हो सकता है, क्योंकि इससे आपके अस्तित्व को खतरा है। जैसे ही आप किसी से कहते हैं, ’मैं तुमसे प्रेम करता हूं’, आप अपनी पूरी आजादी खो देते है। आपके पास जो भी है, आप उसे खो देते हैं। जीवन में आप जो भी करना चाहते हैं, वह नहीं कर सकते। बहुत सारी अड़चनें हैं, लेकिन साथ ही यह आपको अपने अंदर खींचता चला जाता है। यह एक मीठा जहर है, बेहद मीठा जहर। यह खुद को मिटा देने वाली स्थिति है।
इसको कोई भी व्यक्ति अभिव्यक्त नहीं कर सकता। प्रेम एक ऐसी अवस्था है जिसमें पहुंचने के बाद किसी भी व्यक्ति को अपनी सुध नहीं रहती। इसको तो वो ही समझ सकता है जिसने कि कभी प्यार किया हो। जिससे आपने प्रेम किया हो या जिसके पास तुम्हारे जीवन में प्रेम का झरना फूटा हो, तो तुम्हें पता चलेगा कि कुछ ऐसा हो जाता है- तुम तुम नहीं रह जाते; कहीं दीवारें गिर जाती हैं, सीमाएं धूमिल हो जाती हैं, भेद समाप्त हो जाते हैं। प्रेमी और प्रेयसी दूसरों को दिखाई तो पड़ते हैं, पर प्रेमी प्रेयसी में प्रविष्ट हो जाता है, प्रेयसी प्रेमी में प्रविष्ट हो जाती है। वहां भेद करना मुश्किल हो जाता है। कौन कौन है, इसका भी पता चलाना मुश्किल हो जाता है।
प्रेम का अर्थ है- दूसरा अपने जैसा मालूम पड़ने लगे, तभी प्रेम होता है। अगर दूसरा दूसरे जैसा मालूम पड़ता रहे तो ‘काम’। ‘काम’ तो संसार का है; प्रेम परमात्मा का है।
जब आप प्रेम में डूब जाते हैं तो आपके सोचने का तरीका, आपके महसूस करने का तरीका, आपकी पसंद-नापसंद, आपका दर्शन, आपकी विचारधारा सब कुछ पिघल जाता है। आपके भीतर ऐसा अपने आप होना चाहिए, और इसके लिए आप किसी और इंसान का इंतजार मत कीजिए कि वह आकर यह सब करे। इसे अपने लिए खुद कीजिए, क्योंकि प्रेम के लिए आपको किसी दूसरे इंसान की जरूरत नहीं है। आप बस यूं ही किसी से भी प्रेम कर सकते हैं। अगर आप बस किसी के भी प्रति हद से ज्यादा गहरा प्रेम पैदा कर लेते हैं – जो आप बिना किसी बाहरी चीज के भी कर सकते हैं – तो आप देखेंगे कि इस ’मैं’ का विनाश अपने आप होता चला जाएगा।
बस, एक प्रेम ही करने जैसा है। एक प्रेम ही बस होने जैसा है। एक प्रेम में ही डुबकी लगानी है और अपने को खो देना है। प्रेमी को पता भी नहीं चलता कि हुआ क्या है? और अपने को खो देता है, गंवा देता है। आपके अंदर जब तक अहंभाव है, तब तक तो प्रेम होगा ही नहीं। आप ही अवरोध हो। जहां आप गिरे, उधर प्रेम हुआ। आपके गिरने से ही प्रेम का उठना है। आप जब तक अकड़ कर खड़े हो, तब तक प्रेम नहीं हो सकता; तब तक आप लाख प्रेम की बातें करो, कोरी होगी, चले हुए कारतूस जैसी होगी, चलाते रहो, उससे कुछ नहीं होगा। बातचीत होगी, उसमें प्राण नहीं होंगे।
प्रेम कुर्बानी मांगता है। और छोटी-मोटी कुर्बानी नहीं, कुछ और देने से नहीं चलेगा। तुम कहो, धन दे देंगे, तुम कहो, यश दे देंगे; तुम कहो शरीर दे देंगे- नहीं, कुछ और देने से काम नहीं चलेगा, तुम्हें अपने को ही देना पड़ेगा। आपको तो अपने को ही समर्पण करना होगा। प्रेम तुम्हें मांगता है; तुमसे कम पर राजी नहीं होगा। तुम कुछ और देकर प्रेम को समझा नहीं पाओगे। प्रेम आपकी कीमत से मिलता है, अपने आप को दांव पर लगाने से। इसलिए प्यार भी कोई इतनी सस्ती वस्तु नहीं की की कुछ सोने के सिक्कों से इसको खरीद लिया जाए। इसमें पूर्ण समर्पण होना चाहिए। प्रेम तो ईश्वर की कृपा से ही मिलता है और परवान चढ़ता है। इसलिए आप सभी से मेरा यही अनुरोध है कि प्रेम करो तो सच्चा करो। समर्पित होकर करो।
कनक लता चौधरी
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