सीता जी का प्रेम पत्नी का प्रेम है, दाम्पत्य प्रेम। सीता जी वैसे प्रेम की मूर्ति हैं जिसमे पत्नी दास्य-भाव में आकर पति के चरण-कमलों को दबाती (सेवा करती) हैं। यहाँ भक्ति-की श्रेष्ठता है, उनके प्रेम में अभिमान और अद्वैत का लेश-मात्र भी अंश नहीं है क्यूंकि उनकी प्रेमा-भक्ति दास्य-भाव से पोषित है। सीता जी सदा अपने पति के चरणों की सेवा करनी चाहती हैं, इसी से वो अपने प्राणधन को संतुष्ट करना चाहती हैं, वो अपने स्वामी से एक होते हुए भी भक्ति के कारन भगवान से एकत्व भाव में नहीं आती, उनसे अपने चरणों को नहीं छुआती हैं, वह स्वयं श्री राम की अर्धांगिनी हैं, सकल सृष्टि की स्वामिनी हैं, श्री राम को भी अपने प्रेम के वश में रखने वाली हैं, परन्तु इसका उन्हें तनिक भी अभिमान नहीं है, अतः भगवान श्री राम को कभी भी सीता जी में गर्व देखने को नहीं मिला। सीता जी विनती करती हैं:-
तौ भगवानु सकल उर बासी। करिहि मोहि रघुबर कै दासी॥
जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कछु संदेहू॥ श्रीरामचरितमानस १.२५९.३ ॥
भावार्थ:- सबके हृदय में निवास करने वाले भगवान मुझे रघुश्रेष्ठ श्री रामचन्द्रजी की दासी बनने का सौभाग्य प्रदान करें। जिसका जिस पर सच्चा स्नेह होता है, वह उसे मिलता ही है, इसमें कुछ भी संदेह नहीं है॥
सीता जी प्रभु से कहती हैं –
पाय पखारि बैठि तरु छाहीं। करिहउँ बाउ मुदित मन माहीं॥
श्रम कन सहित स्याम तनु देखें। कहँ दुख समउ प्रानपति पेखें॥2॥
भावार्थ:-आपके पैर धोकर, पेड़ों की छाया में बैठकर, मन में प्रसन्न होकर हवा करूँगी (पंखा झलूँगी)। पसीने की बूँदों सहित श्याम शरीर को देखकर प्राणपति के दर्शन करते हुए दुःख के लिए मुझे अवकाश ही कहाँ रहेगा॥
सम महि तृन तरुपल्लव डासी। पाय पलोटिहि सब निसि दासी॥
बार बार मृदु मूरति जोही। लागिहि तात बयारि न मोही॥3॥
भावार्थ:-समतल भूमि पर घास और पेड़ों के पत्ते बिछाकर यह दासी रातभर आपके चरण दबावेगी। बार-बार आपकी कोमल मूर्ति को देखकर मुझको गरम हवा भी न लगेगी॥
गोस्वामी तुलसीदास
गोस्वामी तुलसीदास जी भी ऐसे हीं सत्य-प्रेम की कामना करते हैं जैसे मीन का प्रेम जल में होता है, जल से वियोग (बाहर) आने पे तड़पने लगती है उसी प्रकार का सत्य-प्रेम मुझे श्री राम में हो, जैसे दोहावली में गोस्वामी जी कहते हैं:
राम प्रेम बिनु दूबरो राम प्रेमहीं पीन ।
रघुबर कबहुँक करहुगे तुलसिहि ज्यों जल मीन ॥
भक्ति कैसी होनी चाहिए यह गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा प्रभु से की गयी प्रार्थना से स्पष्ट होता है। भक्ति इष्ट से निरंतर प्रेमभाव है, जैसे परमभक्त गोस्वामी तुलसीदास जी निरंतर प्रिय लगने की विनती करते हैं (उनका प्रेम सदा दास्य-भाव से भली-भाँति पुष्ट है) :
कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम।
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम॥ श्रीरामचरितमानस ७.१३० ख॥
भावार्थ:- जैसे कामी को स्त्री प्रिय लगती है और लोभी को जैसे धन प्यारा लगता है, वैसे ही हे रघुनाथजी। हे रामजी! आप निरंतर मुझे प्रिय लगिए॥
पंडित श्याम किंकर मिश्र,
किंकर बाबा आश्रम, मानस मार्ग पटना l
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