लेख -३६४ दिनो में सिर्फ नौ दिन ही देवी क्यों।

64 0


देख रहे हैं इनके जुल्म कर रहे जो स्त्रियों
पर अत्याचार है। कुछ नासमझों में अब हम यहां कुछ बोल दें। तो बोलोगे कि बोलती है। हमेंशा ही घात – प्रतिघात होता आया है हम स्त्रीयों पर जब-जब हुआ भीषण संग्राम है।
मन की बात रखें तो किया अपमान है। किससे कहें, वेदना अपनी कौन है जो सुनें चीखें हमारी, चलतीं सांसों को रुकने की अनुमति ही दे दो। घूंट घूंट कर भी क्या जीना है। और ना करो तुम हमें इतना जलील,बस करो अब ना बनाओ तुम हमारा यूं तमाशा। ना कहो तुम अपने घर की नारियों को काली, दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती और चंडिका।
नहीं पूजने योग्य तुम देवी को खंडित कर दो इनकी सारी ये मूर्तियां, क्योंकि अब पत्थर से बने मूर्तियां भी इनके वहशी भरें नजरों में सुरक्षित नहीं। जहां धोते लोग अपने सारे पाप है अब वो गंगा सुरक्षित नहीं। रहने दें इसे पुरूषों का देश यहां स्त्री का कुछ काम नहीं। भोग विलासिता की चीजें हमें हैं समझा, अब हमें रहना ये धाम नहीं। रुकते अब ये आंसू नहीं, लहरों ने लिए मज़े खूब चट्टानों की रूदन अब सुनें कौन। विचलित विस्मित सा लग रहा हर पल यहां। हर स्त्री मन व्याकुलता और बैचेन है। किसके लिए आखिर किसके लिए कर रही इतनी कठोर तपस्या है। हर देश,हर शहर,हर गली हर मोहल्ला बचा ना यहां का कोई कोना-कोना है, मां बहन बेटी पत्नी,सखी,ना बचा किसी रिश्ते में यहां मर्यादा सब अब एक बिता ख्वाब बन कर रह गए हैं। बस करो, ना बचा पाओगे अब तुम अपना कोई आत्मसम्मान हो रही इस विश्व विख्यात में लज्जित हर नारी है।
अब हर रिश्ता इन पर भारी है। कोमल और कमजोर समझ लूटते आ रहे तुम्हारी अस्मिता है। कर रहे ये शिकार तुम्हारा,और फंस रहीं तुम इनके जालों में हो। तुम्हारा भी कोई अस्तित्व है। तुम्हारी भी पहचान है। बंद करों तुम अपने आपको ढांढस बांधना, किसी टूटे कांच की तरह हुए चकनाचूर ख्वाब तुम्हारे, उड़ानों में पंख लगे ही थे कि काट दिए गए पर्र तुम्हारे आखिर कब तक,कब तक चलेगा ये अत्याचार हम पर, क्यों ये जीने नहीं देते आखिर क्यों ये वहशी दरिंदे मनुष्य रूप धर ऐसा अत्याचार है करते। स्त्रीयों का हंसता मुस्कुराता चेहरा क्यों इन्हें चुभता है। क्यों इनकी दर्द की चीखें इनके कानों तक नहीं पहुंचती मानवता पर दरिंदे बने कुछ मानव है। हर युग में ऐसे राक्षसों का सामना करती आई तुम देवी स्वरूपा नारी हो। पल-पल अपने बदलते स्वरूपों से पूछो कितनी शक्ति तुम्हारे भीतर है। कभी अन्नपूर्णा कभी लक्ष्मी, कभी सरस्वती, वक्त पड़ने पर बनी काली हो तुम। हां इस कलयुग में तुम कोई द्रोपती नहीं जो मधूसूदन आएंगे तुम्हारी लाज बचाने।
इस कलयुग में घर-घर बैठा दुशासन है।
फिर से सीता को हरने साधुवेश में आता रावण है। बंद आंखें बड़े बुजुर्गो की तमाशा देखती प्रजा है। सतयुग में एक ही सीता थी, महाभारत में एक ही द्रोपती। कलयुग में हर घर सीता हर घर द्रोपती । बना यहां हर कोई रावण,हर कोई दुर्योधन है। नहीं किसी में शक्ति यहां राम और कृष्ण बनने की। लाज अपनी बचाने काल अवतारी बन स्वयं तुम नारियों। हाथों की चुड़ियों को बना लो हथियार नारियों। अगर कोई स्पर्श भी करना चाहे तो उसके अंग से काट दो उसका हाथ नारियों।
तब सही रूप में तुम पूजी जाओगी।
दुर्गा लक्ष्मी सरस्वती काली का नाम तुम ही रोशन करोगी। जैसे किया झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने,रानी अवंतीबाई ने, जैसे रानी पद्मावती ने जौहर कर। जब मौन तोड़ो तुम अपना सही मायने में। अपने निर्णय स्वयं लेने लग जाओ जब तुम ,तब सही हकदार होगा तुम्हारा नवरात्र में अपना पूजन कराने का तब बनेगी हर नारी चंडिका है।
…. ✍🏻निर्मला की कलम से 🍁
कवयित्री निर्मला सिन्हा “निशा”

स्वतंत्र लेखिका

ग्राम जामरी डोंगरगढ़ छत्तीसगढ़

Related Post

पर्यावरण संरक्षण के साथ-साथ जातिगत विभेदों से ऊपर है ‘छठ’महापर्व

Posted by - नवम्बर 9, 2021 0
मुरली मनोहर श्रीवास्तव कांच ही बांस के बहंगिया, बहंगी लचकति जाय… बहंगी लचकति जाय… बात जे पुछेलें बटोहिया बहंगी केकरा…

हर चुनाव कुछ कहता है.

Posted by - अप्रैल 12, 2022 0
(धीरेंद्र कुमार) 75 सदस्यीय बिहार विधान परिषद के 24 सीटों के लिए हुए मतदान का परिणाम समाने है।  13 सीट…
Translate »
Social media & sharing icons powered by UltimatelySocial
LinkedIn
Share
WhatsApp