भौगोलिक परिवर्तनों से मुख्य आशय यह है कि बिहार की लड़कियां विवाहित होकर यूपी तथा अन्य जिन प्रदेशों व स्थानों में गईं, वहां वो अपने साथ अपनी इस सांस्कृतिक धरोहर को भी लेते गईं। उन्होंने अपनी इस परम्परा को न सिर्फ पूरी संलग्नता से कायम रखा बल्कि इसके महत्व-प्रभाव के वर्णन द्वारा और लोगों तक भी इसका प्रचार-प्रसार किया।
इस प्रकार बिहार के बाहर इस पर्व का प्रचार-प्रसार होता गया और आज यह पर्व पूर्वी भारत में बिहार समेत यूपी, झारखंड व नेपाल के तराई क्षेत्रों में भी बड़े धूमधाम और उत्साह के साथ मनाया जाता है। इसके अतिरिक्त छिटपुट रूप से तो इसका आयोजन समूचे भारत में और विदेशों में भी देखने को मिलता है।
कहते हैं दुनियाँ उगते सूरज को हमेशा पहले सलाम करती हैं, लेकिन बिहार के लोगो के लिए ऐसा नहीं हैं। बिहार के लोकआस्था से जुड़े पर्व “छठ” का पहला अर्घ्य डूबते हुए सूरज को दिया जाता हैं। यह ना केवल बिहारियों की खासियत हैं बल्कि इस पर्व की परंपरा भी की लोग झुके हुए को पहले सलाम करते हैं, और उठे हुए को बाद में। लोक आस्था का कुछ ऐसा ही महापर्व हैं “छठ”
सामूहिकता का हैं प्रतीक – सामूहिकता के मामले में बिहारियों का यह पर्व पूरी दुनिया में कहीं नहीं मिलेगा। एक ऐसी मिशाल जो ना केवल आस्था से भरा हैं, बल्कि भेदभाव मिटाकर एक होने का सन्देश भी दे रहा हैं। एक साथ समूह में नंगे बदन जल में खड़े हो भगवान् भाष्कर की अर्चना सभी भेदभाव को मिटा देती हैं। भगवान् आदित्य भी हर सुबह यहीं सन्देश लेकर आते हैं, की किसी से भेदभाव ना करो, इनकी किरणे महलों पर भी उतनी ही पड़ती हैं जितनी की झोपडी पर। इनके लिए ना ही कोई बड़ा हैं ना ही कोई छोटा, सब एक सामान हैं। भगवान् सूर्य सुख और दुःख में एक सामान रहने का सन्देश भी देता हैं। इन्ही भगवान् सूर्य की प्रसन्नता के लिए हम छठ पूजा मनाते हैं। मैया हैं छठ फिर क्यों होती हैं सूर्य की पूजा – दीपावली के ठीक छः दिन बाद षष्ठी तिथि को होने के कारण इसे छठ पर्व कहते हैं। व्याकरण के अनुसार छठ शब्द स्त्रीलिंग हैं इस वजह से इसे भी इसे छठी मैया कहते हैं। वैसे किवदंती अनके हैं कुछ लोग इन्हें भगवान् सूर्य की बहन मानते हैं तो कुछ लोग इन्हें भगवान् सूर्य की माँ, खैर जो भी आस्था का ये पर्व हमारे रोम रोम में बसा होता हैं। छठ का नाम सुनते ही हमारा रोम-रोम पुलकित हो जाता हैं और हम गाँव की याद में डूब जाते हैं। दुनिया का सबसे कठिन वर्त – चार दिनों यह व्रत दुनिया का सबसे कठिन त्योहारों में से एक हैं, पवित्रता की इतनी मिशाल की व्रती अपने हाथ से ही सारा काम करती हैं। नहाय-खाय से लेकर सुबह के अर्घ्य तक व्रती पुरे निष्ठा का पालन करती हैं। भगवान् भास्कर को 36 घंटो का निर्जल व्रत स्त्रियों के लिए जहाँ उनके सुहाग और बेटे की रक्षा करता हैं। वही भगवान् सूर्य धन, धान्य, समृधि आदि पर्दान करता हैं। नहाय खाय –08 नवंबर ( इस दिन व्रती कद्दू की सब्जी, चने की दाल, और अरवा चावल का भात खाती हैं) खरना – 09 नवंबर ( दिनभर उपवास रखकर व्रती खीर-रोटी खायेंगी, इसके बाद 36 घंटे का उपवास शुरू हो जाता हैं ) संध्या अर्घ्य – 10 नवंबर ( जल में खड़े होकर अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ दिया जाएगा) प्रातः अर्घ्य – 11 नवंबर ( उदयीमान सूर्य को अर्घ्य के साथ लोक आस्था का महापर्व छठ का समापन )
क्या हैं पौराणिक कथा – पौराणिक कथा के अनुसार महाभारत काल में अपना राज्य गवां चुके पांडवों की दुर्दशा देखकर दुखी द्रोपदी को रहा नहीं गया, और उन्होंने भगवान कृष्ण की सलाह पर सूर्यदेव की पूजा की थी। इसके बाद ही पांडवों को अपना राज्य वापस मिला था। एक अन्य कथा के अनुसार भगवान् श्रीराम के लंका विजय से लौटने के बाद माँ सीता ने कार्तिक शुक्ल पक्ष षष्टी तीथी को सूर्य की उपासना की थी जिससे उन्हें सूर्य जैसा तेजस्वी पुत्र की प्राप्ति हुई।
औरंगाबाद के देब में हैं इसका जीता जागता उदहारण – औरंगाबाद जिले के देब का सूर्य मंदिर भारत सहित दुनिया में प्रसिध हैं। कहते हैं जब मुग़ल शासक औरंगजेब पुरे भारत के मंदिरों को गिरता हुआ यहाँ आया तो इस सूर्य मंदिर को भी तोड़ने का आदेश दिया। लेकिन मंदिर के भक्तो ने इसे ना तोड़ने का आग्रह किया। एवं इससे जुड़े मान्यता एवं शक्ति औरंगजेब को बताई। इस पर औरंगजेब ने कहा की अगर सूर्य देव में शक्ति हैं तो वह मंदिर के प्रवेश द्वार को पूरब से पश्चिम करके दिखाएँ। अगर ऐसा हुआ तो वह मंदिर को नहीं तोड़ेंगे। कहते हैं रातभर में ऐसा ही हुआ। यह देखकर औरंगजेब भी इनके शक्ति के आगे नतमस्तक हो गए और मंदिर को बिना तोड़े ही वहां चले गए।
आस्था के नाम पर होने लगा व्यापार – छठ पर्व का त्यौहार अंग देश से शुरू हुआ था, इस वजह से इस पूजा में वहां होने वाले फलों, और सामग्रियों की विशिष्ठता रहती थी जैसे उत्तर पूर्व भारत में गन्ना, निम्बू, सिंघारे आदि प्रचुर मात्र में मिलता था जिससे लोग प्रसन्न होकर सूर्य की सेवा में अर्पित करते थे, लेकिन बाजारवाद के साथ ये त्यौहार भी बदलने लगा हैं। देशी खुसबू से दूर होता ये त्यौहार ग्लोबलाइजेशन की भेंट चढ़ता जा रहा हैं। अब लोग बांस के सूप की जगह पीतल, ताम्बा, सोने और चांदी के सूप का प्रयोग करने लगे हैं। फलो का भी रंग बदल गया और काजू बादाम के संग अनके तरह की मिठाई आ गई हैं। और आस्था का यह त्यौहार फैशन और अंतर्राष्ट्रीय मार्किट की सोभा बनती जा रही हैं।
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