भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश प्रवक्ता अरविन्द कुमार सिंह ने कहा है कि स्वतंत्रता मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है। गुलामी किसी को भी प्यारी नहीं होती। चाहे वह पिंजरे में बंद बाघ हो या बाड़े में बंद बकरी। सबसे कष्टदायक स्थिति तब होती है जब अपनी ही मातृभूमि पर गुलाम होकर रहना पड़ता है, जहाँ भावाभिव्यक्ति की भी स्वतंत्रता नहीं होती। अंग्रेजों के बर्बरतापूर्ण रवैये से त्रस्त भारतीय सिसकियाँ भर चुप हो जाते थे, क्योंकि खुलकर रोना भी गुनाह था। साजिश के तहत लेखनी कुंठित एवं तलवार की धार कुंद कर दी गई थी। केवल कर्तव्य का पाठ पढ़ाया जाता था। अधिकार के पन्नों को पलटना भी दण्डनीय अपराध था। बर्दाश्त की भी सीमा होती है। अतिशयता के कारण असहज मन उठने प्रतिक्रिया की आँधी का परिणाम बड़ा भयावह होता है। जनमानस में संचित आक्रोश, बारूद की एक बड़ी ढेर का रूप धारण कर चुका था। आवश्यकता थी एक चिनगारी की, तभी हाथ में व्यवस्था परिवर्तन की मशाल लेकर एक बूढ़ा शेर जंगे – मैदान में आया। उम्र अस्सी की थी लेकिन जोश अट्ठारह के जवानों से भी अधिक – “ अस्सी वर्षों की हड्डी में जागा जोश पुराना था, सब कहते हैं कुँवर सिंह भी बड़ा वीर मर्दाना था। ”
भोजपुर जनपद में आज भी बड़े गर्व से गाया जाता है – ‘ ‘पाकल मोछिया पर आइल बा जवानी कुँवर के’।
1857 के वीर सेनानी बाबू कुँवर सिंह का जन्म बिहार में भोजपुर जनपद के जगदीशपुर के एक सम्मानित जमींदार परिवार में हुआ था। इनके बाबा का नाम उदवंत सिंह तथा पिता का नाम साहबजादा सिंह था जिनके ये ज्येष्ठ पुत्र थे बाबू वीर कुंवर सिंह। इनके छोटे भाई अमर सिंह इनकी दाहिनी बाँह थे। यह कहना अत्युक्ति नहीं होगी कि वें भी कुँवर सिंह से कम नहीं थे। इनके दूसरे भाई का नाम दयाल सिंह था वे भी उन्हीं की तरह बहुत बड़े शूरमा थे।
कुँवर सिंह का विवाह गया जिला स्थित देव के प्रतिष्ठित जमींदार फतेह नारायण सिंह की पुत्री से हुआ। इनके पुत्र का नाम दलभंजन सिंह था जिनकी असमय मृत्यु ने कुँवर सिंह को गहरा शोक दिया, यह स्वाभाविक भी था। अपने एक मात्र पौत्र रिपुदमन सिंह के लिए वे दादा और गुरु दोनों थे। वे अपने अरमानों के मुताबिक उसे पूर्ण योद्धा बनाने में सफल रहे। वह सभी तरह की युद्ध – कलाओं में निपुण था जिसे लोग अभिमन्यु का अवतार कहा करते थे। उसने अंग्रेजों की कई गुप्त योजनाओं को नाकाम कर दिया था। अपने युद्ध कौशल से उसने अंग्रेजों के दाँत खट्टे किए तो गुरिल्ला वार से उनकी नींद हराम कर दी थी। शायद भारतमाता के भाग्य में अभी मुक्ति नहीं थी। तभी तो समय के पहले ही वह शहीद हो गया। लगा , जैसे भरी दुपहरिया में ही रात हो गई। कुँवर सिंह के अरमानों का चिराग बुझ गया। फिर भी बूढ़ा शेर विचलित नहीं हुआ, बल्कि प्रतिक्रिया ने दुगुना उत्साह भर दिया और वे यह कहते हुए नए जोश साथ अग्रसर हुए कि घबराओ मत, अभी मेरा अमर’ जिंदा है।
कुँवर सिंह को बचपन से ही घुड़सवारी, तलवारबाजी तथा अन्य अस्त्र – शस्त्रों से काफी लगाव था। जमींदारी ठाठ और ठसक ने इन्हें कभी प्रभावित नहीं किया। युवावस्था में इनका समय महल की पाबंदियों से दूर जंगल में बनी छावनियों में व्यतीत होता था। आज भी जगदीशपुर का एक बड़ा भू – भाग जंगल दाँवा के नाम से जाना जाता है। कुँवर सिंह का संबंध जंगल में रहने वाले चेरों – खेरों, पासी – पासवानों एवं अन्य लोगों से काफी अच्छे थे। इनके सेवक, रक्षक एवं खानसामाँवें ही थे ।
पिता की मृत्यु के पश्चात् कुँवर सिंह के ही कंधों पर उत्तरदायित्वों का बोझ आ पड़ा। सन् 1826 में ये गद्दी पर बैठे। अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने के कारण इनका अधिकतर समय भूमिगत रहकर ही बीतता था। इसका असर राजकाज पर पड़ना स्वाभाविक था। अतः इनकी माली स्थिति खराब हो चुकी थी इसका एक कारण इनकी अति उदारता भी था। एक तरफ फौज के रख – रखाव का खर्च बढ़ रहा था तो दूसरी तरफ अंग्रेजों ने एक – एक कर इनकी आय के स्रोतों को बंद कर देने में कोई कोर – कसर बाकी न रखी थी। अंग्रेजों की सोच थी कि आर्थिक नाकेबंदी से यह चूहा चरमरा कर धाराशायी हो जाएगा। कुँवर सिंह कर्ज का बोझ उठाते रहे लेकिन उन्होंने अभियान की रफ्तार को कम नहीं होने दिया।
सन् 1857 का सिपाही विद्रोह विश्व विदित है। दानापुर छावनी के विद्रोही सिपाही हथियार सहित सोन नदी पार कर आरा पहुँचे। कई दृष्टियाँ से आरा कुँवर सिंह के अभियान का मुख्य केंद्र था जहाँ उनके सैनिक अंग्रेजों की गतिविधियों एवं क्रिया – कलापों पर पैनी दृष्टि रखते थे। यह अपने बचाव तथा उनको परास्त करने के लिए आवश्यक था। युद्ध कलाओं में निपुण कुँवर सिंह ने एक सुरंग बनवाया था जो जगदीशपुर किले से शुरू होकर लगभग 15 किलोमीटर दूर आरा तक आता था। आज भी महाराजा कॉलेज , आरा के परिसर में यह ऐतिहासिक स्थान द्रष्टव्य है। उस सुरंग के माध्यम से सैनिकों सहित कुँवर सिंह सुरक्षित आरा तक पहुँचते थे। कुँवर सिंह के कार्य – कलापों की गोपनीयता एवं योजनाओं को क्रियान्वित करने में इस सुरंग की अहम भूमिका थी । अपनी गतिविधियों पर नजर रखे अंग्रेजों को वे नजर नहीं आते थे और आरा में विप्लव मचाने में सफल हो जाते थे। 25 जुलाई 1857 को दानापुर के सिपाहियों ने विद्रोह किया और वे 26 जुलाई को आरा पहुँचे। ‘ इन विद्रोही सिपाहियों ने कुँवर सिंह को अपना नेता मान लिया। सिपाहियों एवं कुँवर सिंह के मिलन की खबर ने अंग्रेजी महकमे में खलबली मचा दी। कुँवर सिंह की सेना का आरा पर कब्जा करना अब आसान था।
इस अभियान की आँधी में भी कुँवर सिंह की दूरदर्शिता का चिराग जलता रहा। आर्यकीर्ति के लेखक श्रद्धेय कांतमणि ने लिखा है’ क्रांतिकारी आरा कचहरी में आग लगाना चाहते थे किंतु कुँवर सिंह ने कहा कि अंग्रेजों के जाने के बाद वंश के वारिसदारों को इन्हीं कागज – पत्रों से अधिकार प्राप्त होगा, कागज नष्ट नहीं किए जाएँ। शत्रु पर दया न की जाए परंतु हिंदुस्तानी दुश्मन की तरफ से भी लड़ रहे हों तो उन्हें मारा नहीं जाए। उन्हें बंदी बना लिया जाए क्योंकि समय पाकर उनके विचार परिवर्तित हो सकते हैं। ” स्वतंत्रता की युद्धाग्नि से संपूर्ण बिहार प्रज्वलित हो उठा। उसकी लपट कुँवर सिंह के साथ मिर्जापुर होते हुए रीवाँ पहुँची। रीवाँ के ब्रिटिश समर्थक शासक रघुराज सिंह ने कुँवर सेना का विरोध किया था किंतु जनता ने कुँवर सिंह का सम्मान किया और उनके साथ हो गई। इस घटना से अंग्रेज आश्चर्यचकित थे कि आखिर ऐसा क्या है जो अपने राजा को छोड़कर यहाँ की जनता कुँवर सिंह के साथ हो गई। कारण स्पष्ट था लोगों के दिलों में विद्रोह का बारूद कायम था उसे महज चिनगारी की आवश्यकता थी। अब अपनी बड़ी फौज लेकर कुँवर सिंह ने बाँदा की ओर प्रस्थान किया। उधर रुख करने का उद्देश्य था तात्या टोपे , नाना साहब, लक्ष्मीबाई आदि क्रांतिकारियों से मिलकर आंदोलन को सशक्त बनाकर उसे व्यापकता प्रदान करना। ” नाना साहब , ग्वालियर की सेना तथा कुँवर सिंह की फौज ने संयुक्त रूप से कानपुर पर आक्रमण किया। यह आक्रमण ऐतिहासिक था जिसका असर भारत के एक बड़े भू – भाग पर पड़ा। कुँवर सिंह अब शाहाबाद या बिहार के ही नहीं , बल्कि एक राष्ट्रीय नायक बन चुके थे। उनकी छापामारी युद्ध – कौशल के सभी कायल थे। सीमित संसाधनों से आंदोलन की शुरुआत कर आम जनता, विद्रोही सिपाहियों एवं अन्य महारथियों का सहयोग हासिल कर कुँवर सिंह आंदोलन का पर्याय बन चुके थे। उस समय जवानों से यही कहा जाता था कि एक अस्सी वर्षों का बूढ़ा साँढ़, अंग्रेजों को पुआल की तरह रौंद रहा है और लानत है तुम जवानों की जवानी पर कि तुम्हारे खेतों को अंग्रेजों की बकरियाँ चर रही हैं और तुम कायरों की तरह देख रहे हो! उक्त वाक्य युवाओं की तंद्रा तोड़ने के लिए पर्याप्त ही नहीं, कामयाब भी रहा ।
कुँवर सिंह हर दिल अजीज थे। न्यायप्रिय थे। साहित्य के माध्यम से इतिहास की गहराइयों के अध्ययनकर्ता प्रो केसरी कुमार ने ब्रिटिश इतिहासकार होम्स के वक्तव्यों की चर्चा करते हुए लिखा है कि कुँवर सिंह ने एक दरबारे लोकमंच की स्थापना की थी जो छोटे छोटे केसों का निष्पादन किया करता था। इसका प्रारूप शायद नीचली अदालतों की तरह था। उस दरबारे लोकमंच के सदस्य थे दमरीलाल दूबे, चुन्नी मियाँ, सुरेमन कहार, विशुन कोइरी तथा चंभित दुसाध यह व्यवस्था कुंवर सिंह की समतामूलक समाज निर्माण के प्रति स्वस्थ एवं सच्ची सोच की परिचायक थी ।
एक बार की घटना है। कुँवर सिंह शाहाबाद (भोजपुर) के पीरो इलाके से होकर गुजर रहे थे। वहाँ खेत में धान की रोपनी कर रही रोपनिहारिनों ने अपने मालिक को जाते देखा। यह उनके लिए सुसंयोग था। उन्होंने उनके घोड़े को घेर लिया और दूर से उनपर पानी और कीचड़ फेंकने का नाटक शुरू हुआ। कुँवर सिंह उनके मकसद को समझते थे। यह शुभ शकुन होता है। ये कीचड़ तो नहीं डालेंगी लेकिन घेरा तबतक नहीं छोड़ेंगी जबतक बख्शीश न मिल जाए। लेकिन इस घेरा से दूर एक औरत मुँह घुमाए खड़ी थी। उसकी सहकर्मिनियों ने उसे भी कीचड़ फेकने के लिए प्रेरित किया। उसने यह कहकर मना कर दिया कि यह मेरे भाई हैं। इनसे साथ मैं ठिठोली नहीं कर सकती। पूछने पर पता चला कि वह जगदीशपुर के पासवान की बेटी है और यहाँ उसकी शादी हुई है। कुँवर सिंह तत्क्षण घोड़े से उतर गए और कहा कि कुँवर सिंह की बहन जिस खेत में रोपनी कर रही है वह उसको उपहार स्वरूप दिया जाता है। किसी ने कहा- ” हुजूर , इसका रकबा लगभग दो सौ बीघे का है। ” कुँवर सिंह ने कहा जुबान से निकाला है। अब पूरे खेत पर इसका अधिकार होगा और लगान मुक्त होगा। ” आज भी यह स्थान दुसाधी – बधार (बहिन – बिगहा) के नाम से जाना जाता है। मैं उस स्थान पर गया था। उनलोगों से बात भी की उस अहसान को याद कर उनकी आँखें आज भी भर आती हैं। यह कुँवर सिंह की धवल कीर्ति का अक्षय स्मरण है।
श्री अरविन्द ने कहा है कि हम फक्र से कह सकते हैं कि सामाजिक समरसता की प्रतीक थे बाबू वीर कुंवर सिंह।
कुँवर सिंह का राज सामाजिक समरसता का ही नहीं , सांप्रदायिक सौहार्द का भी आदर्श था। मुहर्रम मौके पर यहाँ से 52 ताजिए निकलते थे । जिसमें एक ताजिया कुँवर सिंह के दरबार से निकलता था और वह सर्वोत्तम होता था। आज भी जगदीशपुर के हिंदुओं द्वारा यथासंभव उस स्वस्थ परंपरा का निर्वाह किया जाता है। कुँवर सिंह की अर्थनीति जरूर कमजोर थी लेकिन गृहनीति और बाह्यनीति काबिले तारीफ थी। जातीयता एवं सांप्रदायिकता को वे पैर की जूती समझते थे। पात्रता और प्रतिभा उनके सर की टोपी थी। अभिलेखागार सैनिक विभाग संख्या -358, अप्रैल, 1858 में उल्लिखित है” यह सच है कि कुछ राजाओं ने कुँवर सिंह का साथ नहीं दिया, पर आम जनता ने इनका भरपूर साथ दिया। इनके परिजनों पुरजनों के अलावा शाहाबाद के कुछ जमींदार यथा नरहन सिंह, जुहू सिंह, विशेश्वर सिंह, रीथ नारायण सिंह, ठाकुर दयाल सिंह आदि प्रारंभ से ही इनके साथ थे। ” खदेरन साहू, मंगरु साहू सरिखे कई छोटे – छोटे व्यवसायी आर्थिक दुर्दिन में इन्हें अंग्रेजों से छिपाकर मदद किया करते थे। इनके सेनापतियों में शहीद रंजीत यादव, जो दानापुर से बगावत करके इनके पास आए थे, उनकी बहादुरी से प्रभावित होकर बाबू साहब ने उन्हें चौगाई डिविजन का सेनापति बनाया। देवी ओझा, पीतांबर शाही तोप डिविजन के सेनापति थे। इनके अन्य सेनापतियों में देवन चौधरी, मैगर सिंह तथा इब्राहीम खाँ थे। इनके मुख्य सेनापति निशान सिंह, हरेकृष्ण सिंह, जुल्फीकार अली तथा करीमशाह थे। करीमशाह का मजार आज भी जगदीशपुर किला के मुख्य द्वार के पास अवस्थित है जो हिंदूओं और मुसलमानों की श्रद्धास्थलि है।
श्री अरविंद ने कहा कि 23 अप्रैल, 1858 विश्व इतिहास का एक गौरवमयी दिवस था जिस दिन कुँवर सिंह ने अपने किले पर स्वतंत्रता का ध्वज फहराया। गंगा पार करते समय बाँह में गोली लग जाने के कारण बाँह तो इन्होंने गंगा को दान कर दिया लेकिन गोली के विष का असर समाप्त नहीं हुआ था। समुचित इलाज के अभाव में तीन दिनों के बाद 26 अप्रैल 1858 को शौर्य के प्रतीक भारत माता के सच्चे सपूत ने अपने स्वतंत्र किले के ध्वज के नीचे अंतिम साँस ली। ‘यह सच है कि 1857 के क्रांतिकारी भारतमाता को आजाद नहीं करा सके लेकिन उनकी शहादत ने स्वतंत्रता की मजबूत आधारशिला अवश्य रखी जिसपर हम 1947 में तिरंगा फहराने में सफल हुए। ब्रिटिश इतिहासकार होम्स ने लिखा है “यदि 1857 नहीं होता तो 1947 का दिन नहीं आया होता। गनीमत थी कि 1857 में कुँवर सिंह की उम्र अस्सी वर्ष की थी। यदि वे जवान होते तो संभव था 1858 में ही अंग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ता।
इसलिए हम कह सकते हैं कि बिहारी अस्मिता के साथ सामाजिक समरसता के प्रतीक थे बाबू वीर कुंवर सिंह।
हाल ही की टिप्पणियाँ