रोज़ निहारे रस्ता उसका ,सूनी ड्योढ़ी हार गई
पूरी शाम गुज़ारी तन्हा, कॉफ़ी ..मग में हार गई !
पथराई सी आँख बिचारी नमी छुपाये रखती थी
सूने दरवाज़े को तकती , बेबस आँखें हार गईं !
हर आहट पर सजी धजी सी आस हमारी बैठी थी
देख के दुनियादारी सारी..काजल ,बिंदिया हार गई !
सांझ ढले हम दीये के संग अपना मन सुलगाते है
तुलसी चौरे पर रक्खी वो दीया – बाती हार गई !
लिखते लिखते हम हारे हैं उसको लेकिन ख़बर नहीं
बिना पते के रक्खे – रक्खे , चिट्ठी – पाती हार गई !
~अनुराधा
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