: (कनक लता चौधरी)
कितना तेज़, कितना उत्कट,
कितना गहन होता है प्यार,
चालीस पार का…
और तब रह जाते हैं उसके पास सिर्फ और सिर्फ वही सच्चे,
रिश्ते जिन्हें वो ढूंढा करती रही थी ताउम्र
अब उसे ज़रूरत नहीं रहती किसी ख़ास पर्देदारी की,
अब वो कह सकती है अपनी हर बात बिना किसी ख़ास पाबन्दी के
अब वो हँस सकती है खुल कर एक बच्ची की तरह बिना किसी विशेष हिदायत के, स्वेच्छा से चाहे जहाँ
अब उसे ज़रूरत नहीं रहती महज जिस्म के साज़ शृंगार की,
अब सराहा जाता है उसे ,
उसके अंदर छुपी क्षमताओं के लिए
और तब, वो जी पाती है, दैहिक सुंदरता से परे,
अपने भीतर की उस औरत को,
जो दब के रह गयी थी अपनी सामजिक और नैतिक दायरों और ज़िम्मेदारियों में कही
जब दो बिखरे हुए लोग,
आ मिलते हैं,
अपने खोए हुए टुकड़े खोजते-खोजते।
चखी होती है कड़वाहट उन्होंने,
स्वाद ताज़ा होता है खटाई का।
ऐसे में वक्त लगता है रूह को,
ज़िन्दगी की मिठास बन घुलने में।
जिस्म से ज़हन
और ज़हन से रूह तक पहुँचते-पहुँचते,
बीत चुकी होती है उमर आधी।
ख़र्च हो चुके होते हैं वजूद, दोनों के।
बालों में सर्द सफ़ेदी,
और माथे पर लकीरें,
मुँह दिखाई का नेग माँग रही होतीं हैं।
बालिग़ दिनों का,
उधार चुकाने के वास्ते,
चढ़ आया होता है वज़न थोड़ा-थोड़ा।
ज़ुबान एक की, बन चुकी होती है कटार,
और दूसरे की, खो चुकी होती है धार।
उन्हें समन्दर, अपने पेट से निकाल कर,
किसी किनारे पर फेंक आता है।
वहीं कहीं टकरा जाते हैं दोनों,
एक-दूसरे से भूले-भटके।
‘कब के बिछड़े हम आज कहाँ आ के मिले’
गीत बज उठता है नैपथ्य में कहीं…
फिर बातें होतीं हैं,
काली सारी रातें होती हैं।
आदतें, फ़ितरतें, हसरतें, मुस्कुराहटें,
सब आ मिलती हैं।
खुरच कर देखते हैं दोनों एक-दूसरे को,
और भीतर की मिट्टी भी एक निकलती हैं।
फिर डाले गलबहियाँ,
मिला के अँखियाँ,
कह उठती है वह,
अपने खोए-पाए हिस्से से…
कि कितना तेज़, कितना उत्कट,
कितना गहन होता है प्यार
चालीस पार का…
आ! चल जी लें थोड़ा,
न बीते मौसम बहार का:
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