आज “अंतर्राष्ट्रीय बेटी दिवस” है। पूरी दुनिया के साथ हिंदुस्तान भी “बेटी दिवस” मनाता है, लेकिन बेटियों को पूर्ण सुरक्षा प्रदान करने में नाकाम रहता है, यह राष्ट्रीय शर्म का विषय है। बेटियों की सुरक्षा को लेकर तमाम बड़ी – बड़ी बातें होती हैं, लेकिन यह कड़वी सच्चाई है कि बेटियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने में समाज और सरकार नाकाम रहे हैं। कोई दिन ऐसा नहीं जाता जब बेटियों के प्रति होने वाले अत्याचार, अपराध और बलात्कार की खबरों से अखबार रंगे न रहते हों। इस सत्य को स्वीकार करने से मुंह नहीं चुराना चाहिए कि बेटियां घर से बाहर और अनेक मामलों में अपने ही घर के भीतर भी सुरक्षित नहीं है।
भारत में बेटियों को लेकर एक अलग सोच रही है। बड़े शहरों में तो यह सोच काफी बदल गई है, लेकिन छोटे शहरों में अभी भी लोग बेटियों को खास तवज्जो नहीं देते। इसी सोच को मिटाने के लिए भारत में डाटर्स डे मनाना शुरू किया गया। इस दिन का उद्देश्य यह है कि लोगों के मन से इस सोच को दूर किया जाए कि बेटी बोझ है। हालांकि यह निर्धारित नहीं है कि भारत में किस साल से डाटर्स डे की शुरुआत की गई।
डाटर्स डे के मौके पर लोगों को यह याद करने का मौका मिलता है कि बेटियां उनके लिए कितनी जरूरी हैं। इसलिए, यह दिन तारीफ करने और बेटियों को यह बताने के लिए मनाया जाता है कि वे कितनी खास हैं। यह दिन बेटियों के लिए जागरूकता बढ़ाने और समानता को प्रोत्साहित करने के लिए भी है। यह लोगों को जागरूक करने के लिए भी मनाया जाता है कि लड़कियों को समान अधिकार और अवसर मिलने चाहिए।
वर्ष 2012 में निर्भया कांड ने पूरे देश की अंतरात्मा को झकझोर दिया था। तब यौन हिंसा से जुड़े कानूनों को सख्त बनाया गया, दोषियों को कड़ी सजा भी मिली। इतना होने के बाद भी स्थिति ढाक के तीन पात वाली ही रही। यौन अपराधियों की गतिविधियां खत्म होने के बदले और बढ़ गईं। ऐसा लगता है जैसे अपराधियों में कानून का कोई डर ही नहीं है। 2018 में एक सर्वे की रिपोर्ट में कहा गया था कि यौन हिंसा, मानव तस्करी और सांस्कृतिक – धार्मिक कारण से भारत महिलाओं के लिए सबसे अधिक खतरनाक देश है। यह स्थिति तो तब है जब राजनीतिक सामाजिक और मीडिया की उदासीनता के चलते बेटियों के प्रति अपराध की घटनाएं चर्चा का विषय ही नहीं बन पाती हैं। इसके अतिरिक्त तमाम घटनाएं तो दर्ज भी नहीं होती हैं। कोई बेटी डर से घर बैठ जाती है, तो कोई शर्म की वजह से मौन रहकर पीड़ा सहती है, कुछ माता-पिता समाज में बदनामी के डर से खून का घूंट पीकर रह जाते हैं। यदि बेटियों के यौन शोषण की तमाम घटनाएं दर्ज हों और दोषियों को कड़ा दंड मिले तो जेलों में जगह कम पड़ जाएगी।
हमेशा की तरह इस “बेटी दिवस” पर भी इस प्रश्न का उत्तर अभी तक नहीं मिला है कि आखिर बेटियां कब सुरक्षित होंगी। अपहरण, मारपीट, गैंगरेप, ऑनर किलिंग जैसी बढ़ती घटनाएं बेटियों के असुरक्षित होने के प्रमाण हैं। देश में यौन अपराध से बेटियों की सुरक्षा का प्रश्न गंभीर है लेकिन इसे बहुत अधिक गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है। किसी बड़ी वारदात के बाद बड़ी-बड़ी बातें होती हैं, चैनलों पर डिबेट होती है, सोशल मीडिया पर चिल्लपों होती है और फिर सब कुछ सामान्य हो जाता है। ऐसे जैसे कि कुछ हुआ ही न हो।
यौन अपराध की घटनाओं के लिए युवा पीढ़ी का भटकाव तो जिम्मेदार है ही, लेकिन जांच में राजनीतिक हस्तक्षेप भी अपराधियों के हौसले बढ़ाने का निश्चित रूप से दोषी है। दबंग और ऊंचे रसूख वाले लोग अपने नालायक बेटों को साफ बचा ले जाते हैं और कानून बेबस खड़ा देखता रह जाता है। इस बात से इनकार का कोई कारण नहीं है कि संस्कारहीन और मर्यादाहीन परिस्थितियां युवा वर्ग के भीतर पसर गई हैं, जिसके चलते बेकसूर बेटियों को उनकी हवस का, उनकी क्रूरता का शिकार होना पड़ रहा है।
एक लोकप्रिय नारा है – “बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ”- यह नारा धरातल पर कितना कारगर है यह बेटियों के प्रति होने वाले अपराधों की बढ़ती संख्या को देखकर समझा जा सकता है। इसमें शक नहीं है कि आज तमाम अभिभावक बेटियों के परिवार में आने का खुले मन से स्वागत करने लगे हैं और बिना किसी भेदभाव के उनका बहुत अच्छी तरह से लालन पालन कर रहे हैं। लेकिन उनका मन उस दिन को लेकर आशंकित रहता है, जब बेटी बड़ी होकर घर से बाहर जाएगी। इस डर को समाप्त किए जाने की आवश्यकता है, समाज की भी और सरकार की भी। बेटियों को सुरक्षित माहौल और समुचित शिक्षा देने की नैतिक जिम्मेदारी सभी की है, क्योंकि बेटियां अनमोल है और उनके बिना किसी समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती है।
( सिद्धार्थ मिश्रा )
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