मंडल-कमंडल की राजनीति के इस दौर में जैसे अब मंडल-2.0 का ज़िक्र किया जा रहा है, वैसे ही परिवारवाद की राजनीति का यह ‘परिवारवाद-2.0’ का दौर चल रहा है. जहां सिर्फ राजनीति या सत्ता अहम हो गई है. विचारधारा के लिए शायद कोई जगह नहीं बची है.
हिन्दुस्तान की राजनीति (Indian Politics) में कुछ खास परिवारों का दबदबा हमेशा से रहा है और परिवारवाद (Familialism) के ख़िलाफ़ की राजनीति भी. एक ज़माने तक कांग्रेस पार्टी (Congress Party) को परिवारवाद और वंशवाद को लेकर निशान बनाया जाता रहा, खासतौर से कांग्रेस का नेतृत्व करने वाले नेहरु-गांधी परिवार को. आज़ादी के बाद के ज्यादातर समय में नेहरू-गांधी परिवार ने ही कांग्रेस की लीडरशिप यानि अध्यक्ष पद को संभाला, पंडित जवाहर लाल नेहरु से लेकर राहुल गांधी तक. श्रीमती सोनिया गांधी कांग्रेस की सबसे लंबे समय तक अध्यक्ष रहीं और अभी पार्टी की अंतरिम अध्यक्ष हैं, इससे पहले उनके बेटे राहुल गांधी को अध्यक्ष बनाया गया था.
पार्टी में लीडरशिप बदलाव को लेकर खासी चर्चा चल रही है. असंतुष्ट कांग्रेस नेताओं का गुट ‘जी-23’ लगातार दबाव बनाए हुए हैं, उस वक्त प्रियंका गांधी वाड्रा को अगला अध्यक्ष बनाने की कोशिशें भी हो रही हैं. इसके साथ ही कांग्रेस नेतृत्व ने दूसरे परिवारों को भी मौका दिया इसमें राजेश पायलट, सिंधिया, देवड़ा, प्रसाद जैसे बहुत से परिवार शामिल हैं.
कई क्षेत्रीय राजनीतिक दल भी परिवारवाद को अपना धर्म मानते हैं
कांग्रेस के परिवारवाद के बाद दौर आया दूसरे क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का, इनमें बिहार में राष्ट्रीय जनतादल के लालू यादव का परिवार, उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह यादव का परिवार, पंजाब में शिरोमणि अकाली दल का बादल परिवार, तमिलनाडु में डीमके का करुणानिधि परिवार, ओड़िशा में पटनायक परिवार, जम्मू कश्मीर में नेशनल कान्फ्रेंस का अब्दुल्ला परिवार और पीडीपी का मुफ्ती परिवार, महाराष्ट्र में शिवसेना का ठाकरे परिवार तो एनसीपी में पवार परिवार के नामों के अलावा भी बहुत से परिवारों के नाम गिनाए जा सकते हैं. वैसे वंशवाद पर निशाना बनाने वाली भारतीय जनता पार्टी भी अब इस परिवारवाद की बीमारी से अछूती नहीं रही हैं, इनमें राजनाथ सिंह परिवार, वसुंधरा राजे परिवार, रमन सिंह परिवार, अनुराग ठाकुर परिवार, शिवराज सिंह परिवार और कल्याण सिंह परिवार के नाम शामिल किए जा सकते हैं.
मंडल-कमंडल की राजनीति के इस दौर में जैसे अब मंडल-2.0 का ज़िक्र किया जा रहा है, वैसे ही परिवारवाद की राजनीति का यह ‘परिवार-2.0’ का दौर चल रहा है. जहां सिर्फ राजनीति या सत्ता अहम हो गई है. विचारधारा के लिए शायद कोई जगह नहीं बची है, इसलिए अब परिवारवाद का विस्तार करने के लिए एक ही परिवार के लोग दो अलग-अलग विचारधारा या विरोधी पार्टियों में शामिल होने लगे हैं, ताकि उन्हें टिकट मिल सके या कुर्सी बची रह सके.
एक ही परिवार के सदस्य अलग-अलग पार्टियों में
ये नेता घर पर सवेरे नाश्ते की टेबल पर एक साथ होते हैं, गर्म चाय पर एक साथ चर्चा करते हैं, अपने दिन भर के प्रोग्राम की बात करते हैं और फिर अपनी-अपनी गाड़ियों से निकल जाते हैं एक दूसरे से विरोधी पार्टियों के प्रचार के लिए. हो सकता है उसमें घर में आए बहुत से कार्यकर्ताओं में से भी कुछ एक साथ तो कुछ दूसरे के साथ निकल जाते होंगे, नारे लगाते हुए.
वैसे इसकी शुरुआत शायद तब हुई जब गांधी परिवार की एक बहू मेनका गांधी ने कांग्रेस से अलग राजनीतिक राह पकड़ी, फिर बाद में मेनका और बेटे वरुण गांधी बीजेपी में शामिल हो गए. अब कहां जाएंगे पता नहीं, क्योंकि बीजेपी में तो लगता है कि दरवाज़े बंद होने लगे हैं. एक ज़माने में कांग्रेस नेता और मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रहे दिग्विजय सिंह कांग्रेस में रहे, जबकि उनके भाई कांग्रेस छोड़ कर बीजेपी में शामिल हो गए और सांसद भी बने, अब फिर कांग्रेस में चले गए हैं.
हाल में यूपी की राजनीति का बड़ा नाम स्वामी प्रसाद मौर्य की खूब चर्चा रही. स्वामी प्रसाद मौर्य एक ज़माने तक बीएसपी में रहे, प्रदेश अध्यक्ष बने, मायावती सरकार में साल 2007 में मंत्री भी बने. जब 2012 में मायावती की सरकार चली गई तो समाजवादी पार्टी में जाने की कोशिश की, लेकिन शायद बात नहीं बन पाई तो फिर 2017 तक आते-आते बीएसपी की दलित नीतियों से उनका मोहभंग हो गया और बीजेपी में उन्हें पिछड़ों पर बरसता प्यार दिखाई दिया, शामिल हो गए. विधायक बने और योगी सरकार में केबिनेट मंत्री भी. साल 2019 में अपनी बेटी संघमित्र मौर्य को बीजेपी का सांसद भी बनवा दिया, लेकिन इस बार चुनाव से पहले स्वामी प्रसाद मौर्य ने समाजवादी पार्टी की साइकिल की सवारी कर ली. लोगों को लगा कि अब बेटी संघमित्र मौर्य भी साथ चली जाएंगी, लेकिन अभी तो 2024 तक सांसद रह सकती हैं, सो वो पिता के साथ नहीं गईं, बीजेपी में ही हैं. संघमित्रा ने कहा, “पीएम मोदी मुझे बेटी की तरह मानते हैं” यानि पिता के लिए पिछड़ों की हमदर्द समाजवादी पार्टी और बेटी के लिए बीजेपी से बेहतर कोई नहीं. लेकिन नाश्ते की टेबल पर सब साथ ही हैं.
मुलायम सिंह परिवार में भी रिश्ते राजनीति में बंटे हैं
समाजवादी पार्टी से नेताजी मुलायम सिंह का घर छोड़कर उनके छोटे बेटे की बहू अपर्णा यादव ने अब बीजेपी के कमल को पकड़ लिया है. नेताजी अभी अपने दूसरे बेटे अखिलेश यादव के साथ ही हैं. यानि सवेरे नेताजी को गर्म दूध और दवा देकर और आशीर्वाद लेकर बहूरानी अपर्णा यादव बीजेपी के या यूं कहिए अपने जेठ अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी के ख़िलाफ़ प्रचार पर निकल जाती हैं.
नेताजी के एक और भाई हैं अभयराम यादव, इनके बेटे हैं धर्मेन्द्र यादव और बेटी हैं संध्या यादव. धर्मेन्द्र यादव समाजवादी पार्टी के टिकट पर तीन बार बदायूं से सांसद रहे हैं और अभी पार्टी का प्रचार कर रहे हैं, लेकिन उनकी बहन संध्या बीजेपी के लिए प्रचार कर रही हैं. उनके पति अनुजेश यादव भी उनके साथ हैं. दरअसल साल 2017 में मैनपुरी में संध्या यादव के ख़िलाफ समाजवादी पार्टी के नेताओं ने ही बग़ावत कर दी और 32 में से 23 ज़िला पंचायत सदस्यों ने आवाज़ उठाई. पिछले पंचायत चुनाव के समय वो बीजेपी में शामिल हो गईं अब साले साहब साइकिल के साथ निकलते हैं और बहन-जीजाजी कमल थाम कर चल रहे हैं.
डॉन का भी परिवार सियासी दलों में बंटा है
यूपी में पहले चरण में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में वोट डाले जाएंगे. इस इलाके का प्रमुख शहर है सहारनपुर और वहां की राजनीति का बड़ा नाम रहा काजी रशीद मसूद, कांग्रेसी मसूद आठ बार सांसद रहे. उनके दो भतीजे हैं इमरान मसूद और नोमान मसूद, दोनों जुड़वा भाई, लेकिन उससे क्या हुआ, दोनों अलग-अलग पार्टी में हैं. इमरान मसूद जिन पर राहुल गांधी भरोसा करते थे, वो समाजवादी पार्टी में चले गए हैं. जबकि नोमान बहुजन समाज पार्टी के सहारे आगे बढ़ने की कोशिश में हैं. इलाका एक है, कार्यकर्ता, रिश्तेदार सब एक ही हैं. बैठकें भी होती हैं लेकिन चुनाव प्रचार के लिए अलग-अलग चुनाव चिन्ह के साथ आगे बढ़ जाते हैं. हो सकता है किसी दिन एक भाई को दूसरे भाई की गाड़ी की ज़रूरत पड़े तो ड्राईवर नहीं, सिर्फ गाड़ी पर लगा झंडा बदलना पड़ेगा.
पश्चिमी उत्तरप्रदेश के भाइयों की बात हो गई तो पूर्वांचल के भाइयों को कैसे नज़रअंदाज़ किया जा सकता है. पूर्वांचल की राजनीति का बड़ा नाम -डॉन मुख्तार अंसारी, वो इस वक्त जेल में हैं. इनके दो भाई हैं बहुजन समाज पार्टी से सांसद अफजाल अंसारी और दूसरे भाई हैं सिबगतुल्ला अंसारी, उन्होंने समाजवादी पार्टी की साइकिल पर सवारी कर ली है, लेकिन टिकट नहीं मिला तो दूसरा रास्ता भी तलाश सकते हैं.
अंबेडकर नगर इलाके में एक बड़ा नाम हैं राकेश पांडेय, साल 2007 में जब बीएसपी ने ब्राह्मणों के साथ करीबी रिश्ता बनाया, उस वक्त 2009 में राकेश पांडेय बीएसपी से सांसद बन गए, मायावती के साथ रहे. साल 2019 में अपने बेटे रितेश पांडेय को भी मायावती से टिकट दिलवा दिया. राकेश पांडेय को अब इस चुनाव से पहले लगा कि साइकिल पर राजनीतिक रफ्तार पकड़ी जा सकती है, सो वो अखिलेश के साथ हो लिए. बेटा रितेश अभी बीएसपी का ही प्रचार कर रहा है.
बाप-बेटे के साथ मां-बेटी के भी राजनीतिक रास्ते अलग-अलग हैं
बाप-बेटा ही क्यों, मां-बेटी भी अलग-अलग राजनीतिक रास्तों पर चल सकती हैं. पूर्वांचल की ही एक प्रमुख पार्टी मानी जाती है अपना दल. अपना दल सोनेलाल ने बनाया था, लेकिन उनके निधन के बाद इसके दो हिस्से हो गए. सोनेलाल पटेल की पत्नी कृष्णा पटेल ने अपनी एक बेटी पल्लवी पटेल को अपनी जगह राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बना दिया, तो दूसरी बेटी अनुप्रिया पटेल को यह मंज़ूर नहीं हुआ.
आप कह सकते हैं कि भाई-भाई या बाप-बेटे तो अक्सर अलग-अलग रास्ता अख्तियार कर लेते हैं, तो फिर बात पति-पत्नी की, एक ज़माने तक तो हमारे यहां वोट भी फैमिली वोट होता था. यानि परिवार का मुखिया या पति जिस पर कहेगा, मुहर उस पर ही लगेगी. लेकिन अब वोट तो बहुत दूर की बात है राजनीतिक पार्टियां भी अलग-अलग होने में कोई मुश्किल नहीं. यूपी में कांग्रेस की लोकसभा सीट है रायबरेली से कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी की, राहुल गांधी अमेठी का चुनाव पिछली बार हार गए थे. इसी इलाके से कांग्रेस नेताओं में एक बड़ा नाम रहा अखिलेश सिंह. उनका कितना असर था इस बात का अंदाज़ा इससे लगा सकते हैं कि साल 2017 के विधानसभा चुनाव में जब बीजेपी के अलावा कुछ नहीं रहा, तब अखिलेश सिंह की बेटी अदिति सिंह ने कांग्रेस के टिकट पर रायबरेली सदर सीट से चुनाव जीता.
पति-पत्नी भी अलग-अलग राजनीतिक रास्ते पर
उनकी शादी हुई पंजाब में कांग्रेस के विधायक अंगद सिंह के साथ. अदिति सिंह पिता के निधन के बाद नवम्बर 2021 में बीजेपी में शामिल हो गईं, जबकि पति अंगद अभी कांग्रेस में ही हैं. अदिति ने अभी प्रियंका गांधी को चुनौती देते हुए कहा, “कांग्रेस में चापलूसी चलती है. मैं चाहती हूं कि प्रियंका आएं और रायबरेली से चुनाव लड़ें.”, जबकि अंगद बोले- “पंजाब में कांग्रेस ही सबसे बेहतर विकल्प है. मुझे पार्टी पर भरोसा है” यानि घर एक लेकिन राजनीति दो अलग-अलग विचारधाराओं के साथ. उम्मीद है नाश्ते पर ‘आलू परांठा’ और ‘बटर पॉव’ को लेकर झगड़ा नहीं होता होगा.
राजनीतिक परिवारों और परिवारों में राजनीति की बात ना तो यहां खत्म होती है और ना ही उनके किस्से. इनके अलावा दर्जनों राजनीतिक परिवार हैं जहां एक ही घर में राजनीति हो रही है, दो अलग-अलग रास्तों की राजनीति. वो ‘राजनीति के राजधर्म’ को नहीं मानते, वो मानते हैं मेरी राजनीति ही मेरा धर्म है, परिवार को इससे मत जोड़िए. कम से कम इसे तो वंशवाद मत कहिए. हिन्दुस्तान की राजनीति के किस्से तो हरि कथा जैसे हैं-‘हरि अनंत, हरि कथा अनंता’.
(डिस्क्लेमर: लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार हैं. आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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